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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
संयोगों की प्राप्ति को जो क्षणभंगुर समझती है वह अन्तरात्मा है।" यहाँ पर स्वामी कार्तिकेय कहते हैं कि अन्तरात्मा की दृष्टि से परिवार, बन्धुवर्ग, पुत्र, पुत्री, मित्र, शरीर की सुन्दरता, गृह, गोधन इत्यादि समस्त वस्तुएँ नवीन मेघ के समान अस्थिर हैं। धन और यौवन भी जलकण के बुन्द-बुन्द के समान क्षणभंगुर है।६ वे आगे अन्तरात्मा को उपदेश देते हुए कहते हैं कि समस्त विषयों को विनाशशील जानकर मोह का त्याग करो और मन को विषय भोगों से हटाकर उत्तम आत्मसुख अर्थात् ज्ञानानन्दमय शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति करो। पुनः वे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही अपना स्वरूप है। अतः पारमार्थिक दृष्टि से वही शरणरूप है। अन्य सब अशरण हैं। आगे वे देह की अशुचिता का विवरण देते हुए कहते हैं कि इस देह पर लगाये हुए अत्यन्त पवित्र, सरस एवं सुगन्धित पदार्थ भी कुछ काल बाद दुर्गन्धित हो जाते हैं। अपने शरीर में अनुराग नहीं करना चाहिये। वे कहते हैं कि अन्तरात्मा इन्द्रिय एवं कषायों का निग्रह करके वीतराग भाव में लीन होकर बार बार आत्मा का स्मरण करती है और इस प्रकार उत्कृष्ट निर्जरा करती है। वस्तुतः जो आत्मा जिन वचन में प्रवीण है तथा आत्मा और शरीर के भेद को जानती है और जिसने आठ भेदों को जीत लिया है, वही अन्तरात्मा है।२०
-वही।
'अथिरं परियण-सयणं, पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं । गिह-गोहणाइ सव्वं, णव-घण-विदेण सारिच्छं ।।६।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (अ. अध्रुवानुप्रेक्षा) । 'जल बुब्बुय-सारिच्छं, धणजोव्वण जीवियं पि पेच्छंता । मण्णंति तो वि णिच्चं, अइ-बलिओ मोह आहप्पो ।। २१ ।।'
-वही । 'चइऊण महामोहं, विसऐ मुणिऊण भंगुरे सव्वे । णिव्विसयं कुणह मणं, जेण सुहं उत्तमं लहइ ।। २२ ।।' _ 'अइलालिओ वि-देहो, ण्हाण सुयंधेहि विविह-भक्खेहिं ।। खणमित्तेण वि विहडइ, जल भरिओ याम-घडओ ब्व ॥ ६॥'
-वही। 'जा सासया ण लच्छी, चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बधेर रई, इयर जणाणं अपुण्णाणं ।। १० ।।' ।
-वही । (क) 'जो पुण विसयविरत्तो, अप्पाणं सव्वदा वि संवरइ।
मणहरविसएहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि ।। १०१।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (निर्जरानुप्रेक्षा)। (ख) 'बारसविहेण तवसा, णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि । वेरग्गभावणादो, णिरहंकारस्स गाणिस्स ।। १०२ ।।'
-वही ।
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