Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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बहिरात्मा
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पौद्गलिक वस्तुओं में सुख को ढूंढना मूर्खता है। जो क्षणिक है या नश्वर है, वह केवल सुखाभास है। फिर भी बहिरात्मा उसी में तन्मय बनी रहती है। अपने एक पद में आनन्दघनजी ने बहिरात्मा की विभावदशा का चित्रांकन किया है। वे लिखते हैं :
'देखो आली नर नागर में सांग। और ही और रंग खेलत ताते फीकी लागत मांग।। उरहानौ कहा दीजै, बहुत करि, जीवन है इहि ढांग। मोह और विवेक बिच अन्तर एतौ जेतो रूपै रांग ।।
तन सुधि खोई घूमत मन ऐसे, मान कुछ खाई भांग। ऐते पर आनंदघन नावत कहा और दीजै बांग।।३६ अर्थात् हे सखी! तू इस चंचल बहिरात्मा के स्वरूप को तो देख। वह अन्य ही अन्य के साथ रंगरेली करती है अर्थात् पर-पदार्थों में आसक्त बनी हुई है। इसी के कारण तेरी सौभाग्यरुपी मांग फीकी लग रही है। इसको उलाहना भी कब तक दिया जाये। इसकी तो जीवन शैली ही ऐसी बन चुकी है। यह विवेकबुद्धि को खोकर शरीर और इन्द्रियों के विषयों के प्रति ऐसे भाग रही है, जैसे उसने भांग खा ली हो। यह लौटकर अपने घर अर्थात् स्व-स्वरूप में आती ही नहीं है। इस मोहग्रस्त को कैसे समझाया जाये कि मोह और विवेक के बीच तो इतना अन्तर है, जितना चाँदी और कथीर में। बहिरात्मा की दृष्टि ऐसी ही होती है।
३.२.१३ देवचन्द्रजी के अनुसार बहिरात्मा का
स्वरूप एवं लक्षण उपाध्याय देवचन्द्रजी बहिरात्मा के स्वरूप को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि जो आत्मा देह पर आसक्ति रखती है, जो शरीर को आत्मा जानती है, मानती है एवं संसार के राग-रंग से विरक्त नहीं होती है, अपित बाह्य पर-पदार्थी में आसक्त होती है, आत्मदर्शन के लिये प्रयत्नशील नहीं होती है - वह बहिरात्मा है। देवचन्द्रजी के अनुसार बहिरात्मा (मिथ्यादृष्टि) मूर्ख है, जो जड़
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आनंदघन ग्रन्थावली पद २१ ।
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