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बहिरात्मा
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ऐन्द्रिक
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है । वह आत्मा देह और इन्द्रियों के वशीभूत होती है । विषयों में राग के द्वारा उसकी बाह्य भावों में परिणति होती है। उसके वचन से वैर या प्रीति की उत्पत्ति होती है एवं संसार की वृद्धि होती है। उसके नयन भी बाह्य पर-पदार्थों में राग-द्वेष उत्पन्न करवाकर अत्यन्त कर्म - बन्धन के निमित्त बनते हैं। इस कारण बहिरात्मा परमात्मदशा का अनुभव नहीं कर पाती है ।' श्रीमद्जी लिखते हैं कि “हे प्रभु! जो आत्माएँ अन्तरभेद से रहित हैं, वे बहिरात्मा हैं ।” ये आत्माएँ आसक्तिपूर्वक संसार की खटपट में संलग्न रहती है । वे आगे लिखते हैं कि बहिरात्मा अहं और ममत्वभाव में मस्त होकर संकल्प - विकल्प के जाल में उलझी रहती है । यही विपरीत समझ बहिरात्मा के मिथ्यात्व का कारण है । जब तक बहिरात्मा पर - पदार्थों के अहं और ममत्वभाव में निमग्न रहेगी; तब तक उसमें समकित प्रकट नहीं हो सकता एवं वह धर्म से भी वंचित रहेगी । उसके अन्तर में एक पल के लिये भी निर्मलता नहीं आयेगी। वह बाह्य पदार्थों में ही अनुरक्त बनी रहती है। १३४
३.२.१२ आनन्दघनजी के अनुसार बहिरात्मा
का स्वरूप
जैन परम्परा में आनन्दघनजी आध्यात्मिक जगत् के शीर्षस्थ सन्तों में माने जाते हैं। वे बहिरात्मा के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए सुमतिजिन स्तवन में लिखते हैं कि
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'आतमबुद्धे कायादिक-ग्रह्यो, बहिरात्म अघरूप सुज्ञानी ।' अर्थात् जो शरीरादि पर - पदार्थों पर ममत्वबुद्धि का आरोपण
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'सेवाने प्रतिकूल जे, ते बंधन नथी त्याग । देहेन्द्रिय माने नहीं, करे बाह्य पर राग ।। १० ।। '
'तुज वियोग स्फुरतो नथी, वचन नयनयम नाही | नहि उदास अनभक्तथी, तेम 'अहंभावथी रहित नहि, नथ निवृत्ति निर्मलणे, आनंदघन कृत चौबीसी,
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गृहादिक माहीं ।। ११ ।। स्वधर्म संचय नाहिं ! अन्य धर्मनी कांई ।। १२ ।। ' सुमतिजिनस्तवन, गा. ५/३ ।
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-श्रीसद्गुरूभक्ति रहस्य ।
-वही ।
- श्रीसद्गुरुभक्ति रहस्य ।
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