________________
बहिरात्मा
१६६
उनसे किंचित् भी विरक्त नहीं होती।२८
बहिरात्मा (अज्ञानी) अपने स्व-स्वरूप की पहिचान नहीं करती है। जैसे चन्द्रमा मेघ से आच्छादित हो जाता है, वैसे ही कर्मोदय के कारण बहिरात्मा का शुद्ध ज्ञान भी आवृत्त हो जाता है। ज्ञान चक्षु पर आवरण आने से सद्गुरू की शिक्षा भी हृदयस्पर्शी नहीं बनती।२६ बनारसीदासजी मोक्षद्वार में मिथ्यात्वी (बहिरात्मा) की विपरीत धारणा को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि बहिरात्मा सोना, चाँदी आदि, जो पहाड़ों की मिट्टी है, उन्हें अपनी निजी सम्पत्ति मानती है और ज्ञान को 'पर' या विषरूप मानती है तथा अपने आत्मस्वरूप को ग्रहण नहीं करती है। शरीर आदि को आत्मा मानती है। साता वेदनीय जनित लौकिक सुख में आनन्दानुभूति करती है। असाता के उदय को दुःख मानती है। यह मिथ्यात्वी आत्मा क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत रहती है। इस प्रकार अचेतन की संगति से चिद्रूप बहिरात्मा सत्य से पराङ्मुख
'जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपत माहि, तृषावन्त मृषा-जल कारन अटतु है । तैसें भववासी मायाहीसौ हित मानि मानि, ठानि ठानि भ्रम श्रम नाटक नटत है ।। आगे कौ धकत धाइ पीछे बछरा चवाइ, जैसे नैनहीन नर जेवरी बटतु है। तैसैं मूढ चेतन सुकृत करतूति करै,
रोवत हसत फल खोवत खटतु है ।। २७ ।।' १२६ 'रूपकी न झांक हीयै करमको डाक पियै,
ग्यान दबि रह्यौ मिरगांक जैसे घन मैं । लोचन की ढांक सौ न मानै सद्गुरू हांक, डोले मूढ़ रांकसौ निसांक तिहूं पनमै ।। २६ ।।
-वही ।
-समयसार नाटक (बंधद्वार)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org