Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
View full book text
________________
बहिरात्मा
१६७
आती हैं, किन्तु यह कोई गुण नहीं है। वस्तुतः परिग्रह, मूर्छा और आसक्ति से कर्मबन्धादि होते हैं। परिग्रह बहिरात्मा में परिग्रहजनित पर्वत जैसे विशाल दोष उत्पन्न करता है। बहिरात्मा आसक्ति से राग-द्वेषादि शत्रुओं को पैदा करती है। इस परिग्रह के प्रभाव से बहिरात्मा डांवाडोल हो जाती है।
३.२.१० बनारसीदास की रचनाओं में बहिरात्मा
का स्वरूप एवं लक्षण बहिरात्मा के स्वरूप का चित्रण करते हुए बनारसीदासजी लिखते हैं कि “जिस प्रकार ग्रीष्मकाल में प्यास से पीड़ित होकर मृग मिथ्याजल की ओर व्यर्थ ही दौड़ता है, उसी प्रकार संसारी जीव (बहिरात्मा) मोह-माया में ही अपना कल्याण मानकर मिथ्या विश्वासों के कारण संसार में परिभ्रमण करते हैं। जिस प्रकार लोटन कबूतर के पंखों में मजबूत पेंच लगे होने से वह उलट-पुलट गिरता है, उसी प्रकार संसारी जीव कर्मबन्ध से संसार में परिभ्रमण करता है। वह पर-वस्तुओं को अपनी कहता है और अपनी ज्ञानादि योग्यता को नहीं समझता है। परद्रव्यों के प्रति ममत्व भाव से आत्महित वैसे ही समाप्त हो जाता है, जैसे काँजी के स्पर्श से दूध फट जाता है।"१२५ बनारसीदासजी आगे बन्धद्वार में बताते हैं कि “पृथ्वी पर नदी का प्रवाह एक रूप होता है; फिर भी पानी की अनेक अवस्थाएँ होती हैं। जहाँ पत्थर से ठोकर लगती है, वहाँ जलस्रोत की दिशा मुड़ जाती है; जहाँ रेत का टीला होता है वहाँ फेन होता है; जहाँ वायु के झोंके लगते हैं, वहाँ लहरें उठती हैं; जहाँ धरती ढलानवाली होती है, वहाँ भँवर होते हैं।
१२५ लियै द्रिढ़ पेच फिरै लोटन कतबूरसौ,
उलटौ अनादिको न कहूं सुलटतु है। जा को फल दुख ताहि साता सौ कहत सुख, सहत लपेटी असि-धारासी चटतु है ।। ऐसे मूढजन निज संपदा न लखै क्योंही, यौंहि मेरी मेरी निसिवासर रटतु है। याही ममतासौ परमारथ विनसि जाइ, कांजीकौ परसपाइ दूध ज्यौं फटतु है ।। २८ ।।'
-समयसार नाटक (बंधद्वार) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org