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बहिरात्मा
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३.२.८ आचार्य गुणभद्र के अनुसार बहिरात्मा
का स्वरूप एवं लक्षण आचार्य गुणभद्र द्वारा विरचित आत्मानुशासनम् की टीका में प्रभाचन्द्राचार्य स्पष्ट रूप से बहिरात्मा के स्वरूप का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि बहिरात्मा अनादिकाल से आत्म-अनात्म के विवेक से रहित होती है। बहिरात्मा की समस्त गतिविधियाँ एवं रुचि बाह्य होती हैं। इसका पुरुषार्थ बाह्य में ही होता है। बहिरात्मा आत्मस्वरूप की घातक होती है एवं धर्म प्रवृत्ति में बाधक होती है। यह आत्मा हेय उपादेय के विचारों से रहित होती है। बहिरात्मा राग-द्वेषादि के विचारों में निमग्न रहती है। वह विषय भोगों में लिप्त होती है। वह न्याय-अन्याय का विचार नहीं करके मनमाना आचरण करती है। आचार्यश्री ने यहाँ पर बहिरात्मा को दुरात्मा के नाम से भी सम्बोधित किया है। वे कहते हैं : “हे आत्मन्! तू आत्म चिन्तन, आत्महित करनेवाला कार्य क्यों नहीं करती है? आत्मस्वरूप को नष्ट करने वाला पुरुषार्थ क्यों करता है? अपने इसी आचरण के कारण तू चिरकाल से दुरात्मा अर्थात् बहिरात्मा ही रही है।" यहाँ पर प्रभाचन्द्रार्य आत्मा के लक्षणों को अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं कि जिस प्रकार पागल एवं शराबी व्यक्ति हिताहित के विवेक से रहित होकर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है - उसे स्वयं की अपनी मृत्यु का भी भय नहीं रहता है ऐसी विषयोन्मुख बहिरात्मा अपने भले बुरे का ध्यान नहीं रखती है; अपितु हिंसादि कार्यों के द्वारा आत्मा का अहित करने में तत्पर रहती है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य (स्वदारासन्तोष) तथा अपरिग्रह आदि धार्मिक प्रवृत्तियाँ जो आत्महित करने वाली है, उनसे बहिरात्मा विमुख रहती है। बहिरात्मा को अपना इतना भी भान नहीं होता कि 'अब यह देह क्षीण हो रही है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ; मुझे किसी भी समय मृत्यु अपना ग्रास बना सकती है।" बहिरात्मा सावधान नहीं होती और न ही आत्महित का चिन्तन करती है। किन्तु इन्हीं विषयतृष्णाओं के कारण मृत्यु के पश्चात् पुनः शरीर को धारण करती है; जो स्वभावतः अपवित्र, अशुद्ध,
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__ आत्मानुशासनम् टीका पृ. १८४-१८६ (श्लोक १६२) ।
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