Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
रोगादि से ग्रसित एवं राग-द्वेषादि का कारण होता है। इन सभी प्रवृत्तियों के कारण वह स्वयं को और अन्य को भी ठगती है। दूसरों को भी धोखा देती है । इस दुःख से परिपूर्ण बहिरात्मा अनादिकाल तक संसार में परिभ्रमण करती है ।१२०
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३.२.६ योगशास्त्र में बहिरात्मा का स्वरूप
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हेमचन्द्राचार्य बहिंरात्मा का निरूपण करते हुए लिखते हैं कि बहिरात्मा शरीर, धन, परिवार, स्त्री, पुत्रादि में आत्मबुद्धि रखती है । शरीर को ही अपना अपना घर मानती है एवं स्वयं ही उसी की स्वामी है ऐसा जानती है। १२१ कर्मावरण के कारण यह मूढ़ आत्मा परपुद्गलों में सन्तोष मानती है ।१२२ बहिरात्मा अज्ञानतावश दुःखी - सुखी एवं कषाय इन्द्रियों के वशीभूत रहती है। बहिरात्मा क्रोधादि चार कषायों की चौकड़ी से घिरी रहती है । १२३ वह दुःख के कारण असन्तोष, अविश्वास और आरम्भ करती हुई बाह्य पदार्थों में मूर्छित होती है। इस परिग्रह के कारण बहिरात्मा संसाररूपी समुद्र में डूब जाती है । जिस प्रकार अधिक वजन हो जाने पर जहाज समुद्र में डूब जाता है, उसी प्रकार की स्थिति बहिरात्मा की होती है १२४ वे आगे बहिरात्मा का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि जैसे मकान की खिड़की से अन्दर छन-छन कर आती हुई सूर्य की किरणों के साथ बहुत ही सूक्ष्म अस्थिर रजकण दिखाई देते हैं, वैसे ही इस परिग्रह से सूक्ष्म रजकण जितना लाभ भी बहिरात्मा को नहीं होता है । बहिरात्मा परिग्रह के कारण परभव में किसी प्रकार की सिद्धी या सफलता प्राप्त नहीं करती है । परिग्रह-परिगणित वस्तुएँ उपभोग या परिभोगादि करने में अवश्य
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‘अहितविहित प्रीतिः प्रीतं कलत्रमपि स्वयं, सकृदपकृतं श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोऽप्ययम् । स्वहित निरतः साक्षादोश समीक्ष्य भवे भवे, विषयविद्यासाभ्यासं कर्थ कुरुते बुधः ।। १६२ ।। '
- आत्मानुशासनम् टीका ।
१२१ योगशास्त्र १२/७ । १२२ वही १२ / १० |
१२३
योगशास्त्र ४/४ - ६ ।
१२४
वही २ / १०६ एवं १०७ ।
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