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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
माण्डूक्योपनिषद' में इसी आधार पर आत्मा की चार अवस्थाओं का चित्रण किया गया है - (१) अन्तःप्रज्ञ; (२) बहिःप्रज्ञ; (३) उभयःप्रज्ञ; और (४) अवाच्य। उसमें शुद्धात्मा का चित्रण करते हुए कहा गया है कि यह आत्मा न तो अन्तःप्रज्ञ है, न बहिःप्रज्ञ है, और न उभयप्रज्ञ है। वस्तुतः इसे प्रज्ञः या अप्रज्ञः कुछ भी नहीं कहा जा सकता - वह अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, उसका कोई लक्षण भी नहीं किया जा सकता। वह अचिंत्य एवं अप्रदेश्य है। वह एक ऐसी अवस्था है जहाँ समस्त विकल्प (प्रपंच) उपशान्त हो जाते हैं। वह शिवत्व (कल्याणकारी) एवं अद्वय की अवस्था है। वही आत्मा विज्ञेय या जानने योग्य है। यद्यपि यहाँ माण्डूक्योपनिषद् आत्मा के सन्दर्भ में अन्तःप्रज्ञः, बहिःप्रज्ञः और उभयःप्रज्ञः - इन तीनों स्थितियों का निषेध करते हुए उसे अचिंत्य और अवाच्य बताता है, किन्तु उसका यह विवरण शुद्ध आत्मदृष्टि को लेकर है। इस प्रकार के विवरण जैनदर्शन में भी आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि यह आत्मा न जीवस्थान है, न गुणस्थान है और न मार्गणास्थान है, क्योंकि ये सभी कर्मजन्य दैहिक स्थितियों में ही घटित होते हैं। शुद्ध आत्मदृष्टि से इन अवस्थाओं को आत्मा में घटित नहीं किया जा सकता है। किन्तु आध्यात्मिक विकास की अपेक्षा से आत्मा की इन विभिन्न अवस्थाओं को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। माण्डूक्योपनिषद्कार ने यहाँ जो निषेध किया है उसे पारमार्थिक दृष्टि से ही समझना चाहिये। व्यवहारिक दृष्टि से तो उसमें बहिःप्रज्ञ, अन्तःप्रज्ञ और उभयःप्रज्ञ - इन तीन अवस्थाओं को स्वीकार किया ही गया है। इनमें भी उभयःप्रज्ञः एक संयुक्त स्थिति है। मूल में तो दो ही हैं - बहिःप्रज्ञ और अंतःप्रज्ञ। इन्हें ही गीता में कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी कहा गया है। एक अन्य अपेक्षा से इन्हें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि भी कहा जा सकता है।
'नान्तः प्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययं सारं, प्रपंचोपशमं शान्तं शिवं अद्वैतं चतुर्थं मन्यते स आत्मा स विज्ञेयः' नियमसार (शुद्धभावाधिकार) गा. १४६-५१ ।
-माण्डूक्योपनिषद् ७ ।
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