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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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कार्तिकेय ने केवलज्ञानी परमात्मा के भी दो भेद किये हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा से चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक जघन्य अन्तरात्मा है। पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक और छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं और सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थानवी जीवात्मा उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। पुनः वे लिखते हैं कि केवलज्ञान से युक्त सकल पदार्थों के ज्ञाता शरीर से युक्त अर्हन्त परमात्मा हैं तथा द्रव्य शरीर से रहित, किन्तु ज्ञान शरीर से युक्त सर्वोत्तम सुख-सम्पदा को प्राप्त सिद्ध परमात्मा हैं। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय ने न केवल त्रिविध आत्माओं की चर्चा की है, अपित त्रिविध आत्माओं में अन्तरात्मा के तीन भेद तथा परमात्मा के दो भेद भी किये हैं और उनके लक्षणों को भी स्पष्ट किया है। इस प्रकार त्रिविध आत्माओं की इस चर्चा में आचार्य कन्दकन्द की अपेक्षा स्वामी कार्तिकेय अधिक विस्तार से इस चर्चा को स्पष्ट करते हैं।
२.४.४ पूज्यपाद देवनन्दी के समाधितन्त्र में
त्रिविध आत्मा आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने समाधितन्त्र नामक ग्रन्थ में सर्व प्राणियों की अपेक्षा से बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा के भेद को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया है। उन्होंने आत्मा की त्रिविध अवस्था स्वीकार की है। जो अचेतन पुद्गल-पिण्डस्थ शरीर, मन, वाणी, पुण्य, पापादि में रूचि रखता है - उनको अपना मानता है - वह बहिरात्मा है। इससे विपरीत अन्तरात्मा अन्तर स्वभाव को जाननेवाली - पहिचाननेवाली है। अन्तरात्मा उत्तम, मध्यम व जघन्य के भेद से तीन प्रकार की है। उनके अनुसार सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के जीव उत्तम अन्तरात्मा हैं। दसवें गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक राग होने से देशव्रती एवं महाव्रती, पांचवें छट्टे गुणस्थानवर्ती श्रावक और मुनि भगवन्त मध्यम अन्तरात्मा हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा जघन्य अन्तरात्मा है।
५४ 'अविरयसम्मद्दिट्टी, होति जहण्णा जिणंदपयभत्ता ।
अप्पाणु जिंदंता, गुण गहणे सुठुअणुरत्ता ।। १६७ ।।
-स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
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