Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
संकल्प-विकल्पों में उलझता रहता है। संकल्प - विकल्पों की इस स्थिति में चित्त स्थिर या एकाग्र नहीं होता है । वह बहिर्मुख बना रहता है । अतः बहिरात्मा कहलाता है। ऐसी आत्मा को निर्विकल्पदशा प्राप्त नहीं होती है । यहाँ मुनि रामसिंह आचार्य कुन्दकुन्द के विचारों से सहमत होते हुए कहते हैं कि जो मन विषयानुराग में सुप्त रहता है अर्थात् उनसे निर्लिप्त रहता है वही परमात्मा के उपदेश को समझ पाता है। वस्तुतः जो चित्त को अचित्त (विकल्पशून्य) बना लेता है वही निश्चिन्त अर्थात् निर्विकल्प होता है। इसे प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा है : "जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप में जागता है और जो व्यवहार ( बाह्य) विषयों में जागता है वह अपने आत्मकार्य में सोता है। वस्तुतः वह बहिरात्मा है ।” ऐसी बहिरात्मा आत्मानुभूति नहीं कर पाती है क्योंकि आत्मानुभूति में उसकी तनिक रुचि नहीं होती । विषयासक्त बहिरात्मा माध्यस्थभाव या वीतरागता की आराधना नहीं कर सकती । बहिरात्मा की विषयासक्त बुद्धि समाप्त नहीं होने के कारण उसकी अभिरुचि संसारिक भोगों में बढ़ती जाती है। मुनि रामसिंह ने आगे राग-द्वेष की प्रवृत्ति को ही संसार कहा है । अतः वह संसारी आत्मा ही है । मुनि रामसिंह के ‘पाहुडदोहा’ में बहिरात्मा के स्वरूप का निर्वचन निम्न रूप से उपलब्ध होता है। वे कहते हैं कि जो मूढ़ (बहिरात्मा) पर-पदार्थों में अनुरक्त रहते हैं वे चाहे नगर में हों, गाँव में हों, वन में हों, पर्वत के शिखर पर हों, समुद्र के तट पर हों अथवा महलों में हों या मठ, गुफा, चैत्यालय आदि किसी भी स्थान पर हों उनको रंचमात्र भी निराकुल सुख उपलब्ध नहीं होता । विषयों में आसक्त रहना बहिरात्मा का लक्षण है । जैसे समुद्र कभी भी नदियों के जल से तृप्त नहीं होता, वैसे ही मूढ़ जीव (बहिरात्मा) को काम - भोगादि
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'मणु जाणइ उवएसडउ जहिं सोवइ अचिंतु ।
अचित्तहं चित्तु जो मेलवइ सो पुणु होइ णिचिंतु ।। ४७ ।।' 'अम्मिए जो परु सो जि परु परु अप्पाण ण होइ ।
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हउं डज्झउ सो उव्वरइ वलिवि ण जोवइ सोइ ।। ५२ ।। '
'मूढा सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ ।
जीव जंत ण कुडि गयइ यहु पडिछंदा जोइ ।। ५३ ।।'
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-वही ।
- दही ।
-वही ।
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