Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
प्रतीत होते हैं और कभी अपने पराये प्रतीत होते हैं। राग-द्वेष का यह खेल मनुष्य की स्वार्थवृत्ति के आधार पर चलता रहता है। निश्चय में तो न कोई तेरा शत्रु है और न कोई तेरा मित्र है।
आचार्य शुभचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि जो ममत्व बुद्धि की रस्सी से बान्धकर तुझे इस संसार चक्र में डालते हैं, वे तेरे बान्धव या हितैषी नहीं हैं। अतः सम्यग्ज्ञान के द्वारा मोह और आसक्ति के इस जाल से छुटकारा पा लेना ही जीवन का वास्तविक लक्षण है। किन्तु जो मोह में आसक्त बना हुआ है, वह मूढ़ बहिरात्मा ही है।०४ बहिरात्मा आत्मस्वरूप से विमुख हो इन्द्रियों के व्यापाररूप शरीर को ही आत्मा मानती है।०५ मूढ़ बहिरात्मा देव पर्यायसहित आत्मा को देव मानती है। जिस पर्याय में आत्मा होती है उसी पर्याय को वह आत्मा समझती है।०६ यह मूढ़ आत्मा शरीर को आत्मा मानने के कारण 'पर' की अचेतन देह को आत्मा मानती है।०७ मिथ्याज्ञानरुपी ज्वर से निरन्तर पीड़ित होकर बहिरात्मा अज्ञानतावश पशु, पुत्र आदि को भी अपना मानती है।०८।
३.२.७ आचार्य अमितगति के योगसारप्राभृत में
बहिरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण आचार्य अमितगति ने स्पष्टरूप से बहिरात्मा शब्द का तो प्रयोग नहीं किया है, किन्तु उसके लक्षणों का संकेत अवश्य किया
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-ज्ञानार्णव सर्ग ३२ ।
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'संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः । बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनम् ।। ११ ।।' 'अक्षद्वारैरविश्रान्तं स्वतत्त्वविमुखैभृशम् । व्यापृतो बहिरात्मायं वपुरात्मेति मन्यते ।। १२ ।।' (क) 'सुरं त्रिदशपर्यायैपर्यायैस्तथा नरम् ।
तिर्यंच च तदंगे स्वं नारकांगे च नारकम् ।। १३ ।।' (ख) 'वेत्त्यविद्यापरिश्रान्तो मूढस्तन पुनस्तथा ।
किन्त्वमूर्त स्वसंवेद्यं तद्रूपं परिकीर्तितम् ।। १४ ।।' 'स्वशरीरमिवान्विष्य परांग च्युतचेतनम् । परमात्मानमज्ञानी परबुद्धयाऽध्यवस्यति ।। १५ ।।' 'ततः सोऽत्यन्तभिन्नेषु पशु पुत्रांगनादिषु । आत्मत्वं मनुते शश्वदविद्याज्वरजिसितः ।। १७ ।।'
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