________________
१६०
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
धुआँ दिखाई देता है।३ __आचार्य शुभचन्द्र संसार की अनित्यता का चित्रण करते हुए बहिरात्मा को सचेत करते हैं कि जिस प्रकार नदी की लहरें जाकर पुनः लौटकर नहीं आती; उसी प्रकार जीवों की विभूति नष्ट होने के पश्चात् पुनः लौटकर नहीं आती। फिर भी बहिरात्मा वृथा ही हर्ष विषाद करती है।६४ नदी की लहरें पुनः कदाचित् कहीं लौट भी आती हैं, परन्तु मनुष्यों का गया हुआ रूप, बल, लावण्य तथा सौन्दर्य फिर नहीं आता। फिर भी बहिरात्मा उनकी आशा लगाये रहती है। आगे वे कहते हैं : “जीवों का आयुबल तो अंजलि के जल के समान क्षण-क्षण में निरन्तर झरता है और यौवन कमलिनी के पत्र पर पड़े हुए जलबिन्दु के समान तत्काल ढलक जाता है। फिर भी बहिरात्मा वृथा ही स्थिरता की इच्छा करती है।६६ जीवन के मनोज्ञ विषयों के साथ संयोग स्वप्न के समान है
और वह क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है। जिनकी बुद्धि मायाचार में उद्धत है, ऐसे ठगों९७ की भाँति ये बाह्य विषय व्यक्ति को आकर्षित कर उसका सर्वस्व हरने वाले हैं। हे बहिरात्मा! ऐसा तू जान ।”६८ यहाँ पर शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि इस लोक में ग्रह, चन्द्र, सूर्य, तारे तथा छः ऋतु आदि सब ही जाते और पुनः लौटकर आते हैं; किन्तु इस देह से गये हुए प्राण स्वप्न में भी कभी लौटकर नहीं
-वही ।
-वही।
-वही सर्ग २ ।
'यस्य राज्याभिषेकश्रीः प्रत्यूषेऽत्र विलोक्यते । तस्मिनहनि तस्यैव चिताधूमश्च दृश्यते ।। ३३ ।।' 'यान्त्येव न निवर्तन्ते सरितां यद्वदूर्मयः । तथा शरीरिणां पूर्वा गता नायान्ति भूतयः ।। ३७ ।।' 'क्वचित्सरित्तरंगाली गतापि विनिवर्त्तते । न रूपबल लावण्यं सौन्दर्यं तु गतं नृणाम् ।। ३८ ।।' 'गलत्येवायुख्यग्रं हस्तन्यस्ताम्बुवत्क्षणे । नलिनीदलसंक्रान्तं प्रालेयमिव यौवनम् ।। ३६ ।।' 'मनोज्ञविषयैः सार्द्ध संयोगाः स्वप्नसनिभाः । क्षणादेव क्षयं यान्ति वंचनोद्धतबुद्धयः ।। ४० ।।' 'घनमालानुकारीणि कुलानि च बलानि च । राज्यालंकार वित्तानि कीर्तितानि महर्षिभिः ।। ४१ ।।'
-वही।
-वही ।
-वही ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org