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बहिरात्मा
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है। इसलिए आचार्य शुभचन्द्र आत्मा को सावधान करते हुए कहते हैं कि जो सुख और दुःख हैं, उन दोनों को ज्ञान रूपी तराजू में तोलेंगे तो सुख से दुःख अनन्तगुणा प्रतीत होगा। . आगे वे संसार की क्षणिकता का चित्रण करते हुए कहते हैं कि राजाओं के यहाँ जो घड़ी का घण्टा बजता है वह वस्तुतः संसार की क्षणभंगुरता को ही प्रकट करता है। यह जीवन घड़ी के घण्टे के समान क्षणभंगुर है। जो घड़ी बीत गई वह पुनः लौटकर नहीं आती।८ मृत्यु हमें प्रतिसमय ग्रसित कर रही है। जीवन का घर प्रति समय रिक्त हो रहा है। शरीर प्रतिदिन क्षीण होता जाता है। आयुबल घटता जाता है। फिर भी यह दुर्भाग्य है कि इस आत्मा की आशा और तृष्णा बढ़ती ही जाती है। आचार्य शुभचन्द्र के शब्दों में यह जीवन तो ठीक वैसा ही है जैसे अनेक क्षेत्रों से आ-आकर संध्या के समय पक्षी वृक्षों पर बैठते हैं, किन्तु प्रातःकाल होते ही पुनः उड़ जाते हैं। यह जीव भी विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करता हुआ विभिन्न कुल या जाति में जन्म लेता है, किन्तु आयु पूर्ण होते ही वहाँ से चल देता है। हमारा सांसारिक आवास स्थाई नहीं है। प्रभात के समय जिस गृह में आनन्द उत्सव मनाया जाता है व मांगलिक गीत गाये जाते हैं २, राज्याभिषेक होता है, उसी दिन संध्या के समय वहाँ चिता का
-वही ।
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'यज्जन्मनि सुखं मूढ यच्च दुःखं पुरःस्थितम् । तयोर्दुःखमनन्तं स्यात्तुलायां कल्प्यमानयोः ।। १२ ।।' 'क्षणिकत्वं वदन्त्यार्या घटीघातेन भूभृताम् । क्रियतामात्मनः श्रेयो गतेयं नागमिष्यति ।। १५ ।।" 'शरीरं शीर्यते नाशा गलत्यायुर्न पापधीः । मोहः स्फुरति नात्मार्थः पश्य वृत्तं शरीरिणाम् ।। २३ ।।' 'यद्वद्देशान्तरादेत्य वसन्ति विहगा नगे। तथा जन्मान्तरान्मूढ प्राणिनः कुलपादपे ।। ३० ।।' 'प्रातस्तरुं परित्यज्य यथैते यान्ति पत्रिणः । स्व कर्म वशगाः शश्वत्तथैते क्वापि देहिनः ।। ३१ ।।' 'गीयते यत्र सानन्दं पूर्वाहणे ललितं गृहे । तस्मिन्नेव हि मध्याह्ने सदुःखमिह रुद्यते ।। ३२ ।।'
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