Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
करके अनात्म में आत्मबुद्धि रखना यही उसकी मूल भूल है। वह मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी इस बात को नहीं समझती है कि उसका वास्तविक कल्याण किसमें है? उनके शब्दों में वह इन्द्रजाल से रचे हुए किन्नरपुर के समान इस असार संसार में स्पृहा करती हुई एवं जो यौवन तथा परिवारजन जल की सतह व बिजली के समान चंचल हैं, उनमें वह रची पची रहती है। दूसरे शब्दों में उसे संसार और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध नहीं होता। ___आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में बहिरात्मा का दूसरा लक्षण दुःख के निमित्तों को सुखरूप मानना है। वे लिखते हैं कि संसार में धन-धान्य, स्त्री, कुटुम्ब आदि जो परिग्रह है, वह वस्तुतः दुःख का हेतु है। किन्तु यह मूढ़ आत्मा उनको ही सुख का हेतु मानकर उनमें आसक्त रहती है। उनके अनुसार इस संसाररूपी समुद्र में परिभ्रमण करते हुए यह आत्मा जितने सम्बन्ध बनाती है, वे सब ही आपदाओं के घर हैं - दुःख के निमित्त हैं। क्योंकि जो भी सांयोगिक है उनका वियोग अवश्यम्भावी है और जहाँ वियोग है वहाँ दुःख ही है। पुनः यह अज्ञानी आत्मा जिन भोगों में सुख मानती है वे उस सर्प के फण के समान हैं, जो व्यक्ति को डस लेता है।६ जिन सांसारिक सुखों को हम सुख मानते हैं वे दुःखों से जुड़े हुए हैं। उनका आदि और अन्त दोनों ही दुःख रूप होता
'गगन नगरकल्पं संगमं वल्लभानाम् । जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा ।। सुजनसुत शरीरादीनि विद्युच्चलानि । क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ।। ४७ ॥' -ज्ञानार्णव सर्ग २ (द्वादशभावना) । 'स्वजनधनधान्यदाराः पशुपुत्र पुराकरा गृहं भृत्याः ।। मणिकनकर चितशय्या वस्त्राभरणादि बाह्यार्थाः ।। ६ ।।'
-वही सर्ग १६ । (क) 'भवाब्धिप्रभवाः सर्वे सम्बन्धा विपदास्पदम् । __ सम्भवन्ति मनुष्याणां तथान्ते सुष्ठुनीरसाः ।। ६ ।।' -ज्ञानार्णव सर्ग १२ । (ख) 'यानपात्रमिवाम्भोधौ गुणवानपि मज्जति ।। परिग्रह गुरुत्वेन संयमी जन्मसागरे ।। १॥'
-वही सर्ग १६ । (क) 'स्मरभोगीन्द्रवल्मीकं रागाद्यरिनिकेतनं । क्रीडास्पदमविद्यानां बुधैर्वित्तं प्रकीर्तितम् ।। २८ ॥'
-वही । (ख) 'भोगा भुजंगभोगाभाः सद्यः प्राणपहारिणः । सेव्यमानाः प्रजायन्ते संसारे त्रिदशैरपि ।। १३ ।।'
-वही सर्ग २ ।
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