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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
करते हुए वे लिखते हैं कि बहिरात्मा दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी विषयों में रमण करती है और मनुष्य जन्म को वैसे ही व्यर्थ कर देती है" जैसे कोई दिव्य रत्न को प्राप्त करके भी भस्म आदि के लिए उसे दग्ध कर देता है। दूसरे शब्दों में जब तक व्यक्ति तीव्र कषायों से आविष्ट है, एकेन्द्रिय विषयों से आविष्ट है, तब तक वह बहिरात्मा है । २०
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३.२.३ आचार्य देवनन्दी के अनुसार बहिरात्मा
का स्वरूप
आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी बहिरात्मा की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि बहिरात्मा अर्थात् मूढ़ आत्मा आत्मज्ञान से पराङ्मुख होती हुई पांचों इन्द्रियों के विषय में स्फुरायमान होती है । बहिर् + बहिरात्मा । निमित्त, संयोग और राग ये सब बाह्य मूढ़ आत्मा मनुष्य, तिर्यंच, देव, नरकादि देह में स्थित आत्मा को उसी रूप में मानती है; किन्तु तत्त्व की अपेक्षा से आत्मा वैसी नहीं है । आत्मा अनन्तानन्त ज्ञान - शक्तिरूप है, स्वानुभवगम्य या स्वस्वरूप में निश्चल है ऐसा बहिरात्मा नहीं मानती । २२ वे आगे लिखते हैं कि बहिरात्मा के तीन भ्रम निम्न हैं :
१. जिस शरीर में यह आत्मा रहती है, वह उस शरीर को ही आत्मा मानती है ।
२. जिन परदेहों में अन्य आत्माएँ रहती हैं, उन्हें वह अन्य जीव समझती है ।
३. वह देह की उत्पत्ति में निमित्तादि को मानती है 1
इस प्रकार बहिरात्मा भ्रम में जीवन यापन करती है । इसी भ्रम
आत्मा
.२१
२०
२१
=
१६ 'रयणं चउप्प हे पिव, मणुअत्तं सुट्ठ दुल्लहं लहिय ।
मच्छो हवेइ जीवो, तत्य वि पावं समज्जेदि ।। २६० ।। ' - कार्तिकेयानुप्रेक्षा (बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा) । 'इय दुलहं, मणुयत्तं, लहिऊणं जे रमन्ति विसएसु ।
तेलहियं दिव्वरयणं, भूइणिमित्तं पजालंति ।। ३००|| ' - कार्तिकेयानुप्रेक्षा (बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा) । ‘बहिरात्मेन्द्रियद्वारैरात्मज्ञानपराङ्मुखः ।
-समाधितंत्र ।
२२
स्फुरितः स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ।। ७ ।।'
समाधितंत्र श्लोक ८ एवं ६ ।
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