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बहिरात्मा
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स्थित है तो वह विषय आकांक्षी ही माना जायेगा।३ ऐसा व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है और उसे आत्मा के शुद्ध स्व-स्वरूप का बोध नहीं होता। आगे मुनि रामसिंह कहते हैं कि जब तक यह आत्मा पुत्र, स्त्री आदि में मोहित होकर बोधि को प्राप्त नहीं होती, तब तक वह संसार में परिभ्रमण करती रहती है।५ क्योंकि जब तक जीव मोह के वशीभूत होकर'६ विषय पराधीनता रूप दुःख को सुख और आत्मिक सुख को दुःख मान लेता है;५७ तब तक वह संसार परिभ्रमण से बच नहीं पाता है।८ वस्तुतः गृहवास अर्थात् सांसारिक विषय भोगों का जीवन यमराज के द्वारा फैलाया गया जाल है जिसमें फंसकर व्यक्ति दुःखी ही रहता है। इसी क्रम में मुनि रामसिंह ने इस बात पर सर्वाधिक बल दिया है कि जब तक अन्तर से भोगाकांक्षा समाप्त नहीं होती० तब तक चाहे व्यक्ति बाहर से मुनि का वेश ही क्यों न धारण कर ले, वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। जैसे सर्प
-पाहुडदोहा।
-वही।
-वही ।
-पाहुडदोहा।
५३ ‘णवि भुंजतां विसयसुहु हियडर भाउ धरंति ।
सालि सित्थु जिम वप्पुडउ णर णरयहं णिवडंति ।। ६ ।।' (क) 'धंधई पडियउ जगु कम्मई करइ अयाणु । ___ मोक्खह कारणु एण्णु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ।। ७ ।।' (ख) 'आयई अडबड वडवडइ पर रंजिज्जइ लोउ ।। __ मणसुद्धइ णिच्चल ठियइ पाविज्जइ परलोउ ।। ८ ।।' 'जोणिहिं लक्खहिं परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु । पुतकलत्तहं मोहियउ जाव ण बोहि लहंतु ।। ६ ।।' 'अण्णु म जाणहि अप्पणउ घरु-परियणु जो इठू । कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिं सिठू ।। १० ।।' 'जं दुक्खु वि तं सुक्खु किउ जं सुहु तं पि य दुक्खु । पई जिय मोहहिं वसि गयउ तेण ण पायउ मोक्खु ।। ११ ।' 'मोक्खु ण पावहि जीव तुहुं धणु-परियणु चिंतंतु । तोउ वि चिंतहि तउ वि तउ पावहि सुक्खु महंतु ।। १२ ।।' 'घरवासउ मा जाणि जिय दुक्कियवासउ एहु । पासु कयंते मंडियउ अविचलु णीसंदेहु ।। १३ ।।' 'मूढा सयलु वि कारिमउ मं फुडु तुहुं तुस कंडि । सिवपहि णिम्मलि करहि रइ घरु-परियणु लहु छंडि ।। १४ ।।' 'मोहु विलिज्जइ मणु भरइ तुट्ठइ सासु-णिसासु ।। केवलणाणु वि परिणवइ अंवरि जाए णिवासु ।। १५ ।।'
-वही।
- वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
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