Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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बहिरात्मा
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व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि भेदविज्ञान से रहित यह (मूढ़) बहिरात्मा शुद्धात्मा की भावना से पराङ्मुख है और शुभाशुभ कर्मों का बन्ध करती है तथा अनन्तज्ञानादि स्वरूप मोक्ष का कारण जो वीतराग परमानन्दस्वरूप निज शुद्धात्मा है, उसका भी वह एक क्षण के लिए विचार नहीं करती एवं आर्त-रौद्र ध्यान में मग्न रहती है।६ अतः उसे बहिरात्मा का लक्षण कहा जाता है। आगे वे कहते हैं कि यह जीव चौरासी लाख योनियों में अनेक ताप सहता हुआ बाह्य संसार में भटक रहा है। निज परमात्मतत्त्व के ध्यान से परे रहकर अतीन्द्रिय सुख से विमुख देह व मन के सुख और दुःखों को सहता हुआ भ्रमण करता है एवं माता, पिता, भ्राता, मित्र, पूत्र कलत्रादि में मोहित है। इस कारण से योगीन्दुदेव ने उसे अज्ञानी कहा है। यह बहिरात्मा वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन रहित है एवं इसे आत्मतत्त्व की चर्चा में रूचि नहीं होती।
योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश की गाथा १२३-२४ में बहिरात्म-भाव का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि यह जीव घर परिवार और शरीरादि के ममत्व में मग्न रहता है। बहिरात्मा शुद्धात्मद्रव्य से विपरीत है। योगीन्दुदेव ने यहाँ पर बहिरात्मा का चित्रण किया है। बहिर्मुखी आत्मा घर-परिवारादि की चिन्ता करती है; पुत्र, कुटुम्ब के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहादि का पाप करती है और बाह्य में अनेक जीवों की हिंसा करके शुभाशुभ कर्मों का उपार्जन करती रहती है। यही बहिरात्मा नरकादि गति का फल भी अकेले भोगती है।६।।
'धंधइ पडियउ सयलु जग्गु कम्मइँ करइ अयाणु । मोक्खहं कारणु एक्कु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ।। १२१ ।।'
वही। 'जोणि लक्खइँ परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु । पुत्त-कलत्तहिं मोहियउ जावा ण णाणु महंतु ।। १२२ ।।'
-वही । (क) 'जीव ण जाणहि अप्पणऊँ घरु परियणु तणु इछु ।
कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिं दिछ ।। १२३ ॥' -परमात्मप्रकाश २ । (ख) 'मुक्खुण पावहि जीव तुहुँ घरु परियणु चिंतंतु ।
तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्खु महत्तु ।। १२४ ।।' -वही । ४६ 'मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि । पुत्त कलत्तहं कारण. तं तुहुं एक्कु सहीसि ।। १२५ ।।'
-वही ।
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