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बहिरात्मा
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होता है।५ योगीन्दुदेव ने विविध देवों और विविध लिंगों को धारण करना बहिरात्मा का लक्षण माना है। बहिरात्मा ही जन्म-मरणरूप संसार का कर्ता होती है। यहाँ हम देखते हैं कि जिस प्रकार अन्य दर्शनों में माया से युक्त ब्रह्म या ईश्वर को सृष्टिकर्ता कहा गया है; योगीन्ददेव ने भी कर्मों के निमित्त से परमात्मस्वरूप आत्मा को सृष्टि का कर्ता बताया है। किन्तु उनकी दृष्टि में यह कर्तृत्व गुण परमात्मा का नहीं अपितु बहिरात्मा का लक्षण है।
योगीन्दुदेव बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम यह बताते हैं कि जो रागादिभाव हैं, वे कषायरूप हैं और जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहता है, तब तक व्यक्ति मिथ्यादष्टि होता है। मिथ्यादष्टि ही बहिरात्मा है। उसको स्वसंवेदन एवं सम्यग्ज्ञान नहीं होता।३७ योगीन्ददेव आत्मा के तीन भेदों में से बहिरात्मा का लक्षण बताते हुए लिखते हैं कि रागादिरूप से परिणत होनेवाली बहिरात्मा है;८ क्योंकि बहिरात्मा का वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूप परिणमन नहीं होता। योगीन्दुदेव ने बहिरात्मा को मूढ़, बहिर्मुख एवं मिथ्यादृष्टि कहा है।३६ ज्ञातव्य है कि परमात्मप्रकाश में बहिरात्मा के लिए मूढ़ का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो देह को ही आत्मा मान लेता है वह मूढ़ या बहिरात्मा है।०
परमात्मप्रकाश में योगीन्दुदेव बहिरात्मा को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि बहिरात्मा निर्दयी होकर अन्य जीवों के प्राण हरती
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'जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग अब्भंतरि जो जि। जगि जि वसन्तु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ।। ४१ ।।" -वही । 'जांवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ ।। होइ कसायहं वसि गयउ जीउ असंजदु सोइ ।। ४१ ।।'
-परमात्मप्रकाश २। 'जेण कसाय हवंति मणि से जिय मिल्लहि मोहु । मोह कसाय विवज्जयउ पर पावहि सम बोहु ।। ४२ ।।'
-वही । 'तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का समभावि । ते पर सुहिया इत्यु जगि जहँ रह अप्प-सहावि ।। ४३ ।।'
-वही । 'देहहं उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ । देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।। ५१ ।।'
-परमात्मप्रकाश २ । 'देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ । परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।। १४ ।।'
-परमात्मप्रकाश १ ।
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