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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
योगसार में बहिरात्मा __ योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश के समान ही योगसार में बहिरात्मा के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए बताया है कि जो मिथ्यादर्शन से मोहित है और देह आदि पर-पदार्थों को अपना मानती है उसे बहिरात्मा कहा जाता है। उनकी दृष्टि में जो देहादि पर-पदार्थ हैं, उनको अपना मानना ही मिथ्यात्व है और इसी मिथ्यात्व के कारण आत्मा की दृष्टि बहिर्मुख होती है। इसी बहिर्मुख के आधार पर ही उसे बहिरात्मा कहा जाता है। योगीन्दुदेव की दृष्टि में जब तक व्यक्ति परमात्मा के स्वरूप को नहीं समझता है और परभाव अर्थात् 'पर' में ममत्व बुद्धि का त्याग नहीं करता है, तब तक वह बहिरात्मा है। जो अपनी आत्मा के शुद्धस्वरूप को नहीं जानता है और परभाव का त्याग नहीं करता है वह भले ही सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता बन जाय, वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता।
३.२.५ मुनि रामसिंह के पाहुडदोहा में बहिरात्मा
के लक्षण मुनि रामसिंह के द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित 'पाहुडदोहा' में स्पष्ट रूप से त्रिविध आत्मा का उल्लेख तो नहीं मिलता, किन्तु उसमें प्रकारान्तर से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का निर्वचन उपलब्ध होता है। सर्वप्रथम उसमें बहिरात्मा के लक्षणों की चर्चा गाथा क्रमांक ६ से २४ तक की गई है, किन्तु अन्य गाथाओं में भी बहिरात्मा के जीवन के निर्देश उपलब्ध होते हैं। सर्वप्रथम उसमें बताया गया है कि चाहे व्यक्ति विषय सुख का भोग न करे, किन्तु यदि उसके हृदय में विषय सुख भोगने की आकांक्षा
-योगसार।
५० मिच्छा दंसण मोहियउ परु अप्पा ण मुणेइ।
सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुण संसार भमेइ ।। ७ ।।' ५१ 'देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पणु मुणेइ ।
सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुणु संसारु भमेइ ।। १० ।' ५२ 'अह पुणु अप्पा णवि मुणहि पुण्णु जि करहि असेस ।
तो वि ण पावहि सिद्धि सुह पुणु संसारु भमेस ।। १५ ।।'
वही।
-वही ।
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