Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
शास्त्रों को पढ़ता है तथा नाना प्रकार के चारित्रों का पालन करता है, तो भी उसकी वह सर्व प्रवृत्ति आत्मस्वरूप से विपरीत होने के कारण उसका वह अध्ययन और चारित्रपालन बालश्रुत और बालचारित्र ही होता है। जब तक यह आत्मा बाह्य ऐन्द्रिक विषयों से जुड़ी हुई है, बहिरात्मा ही है। वह मोक्ष मार्ग से विमुख है।
३.२.२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बहिरात्मा के लक्षण ___ स्वामी कार्तिकेय बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जो आत्मा तीव्र कषायों (अनन्तानुबन्धी कषायों) से पूर्णतः आविष्ट है और इस प्रकार शरीर और आत्मा को एक मानती है, वह बहिरात्मा है। यहाँ हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय ने बहिरात्मा के तीन लक्षण बताये हैं - प्रथम तीव्र कषायों (अर्थात अनन्तानुबन्धी) से ग्रसित होना; दूसरा मिथ्यादृष्टि होना और तीसरा आत्मा और शरीर में एकत्त्व भावना। यद्यपि ये तीनों ही लक्षण पृथक्-पृथक् कहे जाते हैं, किन्तु इनका मूल तो एक ही है; क्योंकि जहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय होती है वहाँ नियम से मिथ्यात्व होता है।" जहाँ मिथ्यात्व होता है वहाँ देह और आत्मा में तादात्म्य मानने की प्रवृत्ति होती है।२ स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं कि अनेक बार यह आत्मा रत्नत्रय को प्राप्त कर लेती है, फिर भी तीव्र कषायों से आविष्ट होकर उस रत्नत्रय का नाश करके दुर्गति को
-वही।
(क) 'जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं । जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेणं सुरलोयं ।। २० ।।'
-वही । (ब) 'जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं । सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ।। २१ ।।'
-वही। (ग) 'जो कोडिए ण जिप्पइ सुहडो संगामएहिं सव्वेहिं ।
सो किं जिप्पइ इक्किं णरेण संगामए सुहड़ो ।। २२ ।। (घ) 'सग्गं तवेण सब्बो वि पावए तहिं वि झाणजोएण । ___ जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं ।। २३ ।।'
-वही । 'मिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्वकसाएण सुठु आविट्ठो । जीवं देहं एक्कं, मण्णंतो होदि बहिरप्पा ।। १६३ ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (लोकानुप्रेक्षा) । 'अण्णं देहं गिहण्दी, जण्णि अण्णा य होदि कम्मादो । अण्णं होदि कलत्तं, अण्णो वि य जायदे पुत्तो ।। ८०।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (अन्यत्वानुप्रेक्षा) ।
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