Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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बहिरात्मा
संसार में भटकते रहते हैं ।” कुन्दकुन्ददेव के अनुसार यहाँ आत्मा को जानने का अर्थ केवल उसे वस्तुगत रूप से जानना ही है; क्योंकि सत्य की समझ होकर भी यदि सत्य आचरण नहीं होता तो वह ज्ञान भी अज्ञानरूप परिणमन ही करता है। जब तक परद्रव्यों अर्थात् बाह्य पदार्थों में आंशिक रुचि भी बनी हुई है तब तक वह आत्मरमण या स्वस्वभाव से वंचित ही है । ऐसा व्यक्ति भी
मूढ़ या अज्ञानी ही कहा जाता है । आचार्य कुन्दकुन्ददेव के अनुसार जो ज्ञान जीवन या आचरण में प्रतिफलित नहीं होता, वह ज्ञान भी अज्ञान ही है । वे कहते हैं कि जो लोग व्रत, नियम आदि से विमुख हैं वे शुद्ध स्वभाव से भी च्युत हैं। उनका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है। वे सांसारिक सुख भोगों में निरत होकर यह कहते हैं कि अभी ध्यान का काल नहीं है अर्थात् इस युग में शुद्धाचरण सम्भव नहीं है । बहिरात्मा की विचित्र स्थिति को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि “पाप से मोहित मतिवाले कुछ लोग जिनेन्द्र के लिंग को धारण करके भी पापकर्मों में निरत रहते हैं । वे मोक्षमार्ग से पतित ही हैं। वे आगे कहते हैं कि जिसका चित्त आत्मस्वभाव से विपरीत या बहिर्मुखी है, विविध प्रकार के उपवास आदि तपों से भी उसको क्या लाभ होगा? वस्तुतः जो आत्मस्वभाव से विमुख है अर्थात् जिसका चित्त बाह्य वस्तुओं के प्रति सम्मोहित है यही उस आत्मा की बहिर्मुखता है । यदि ऐसा मुनि अनेक
५ 'सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ।। १० ।।' ક્ 'मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छा भावेण भाविओ सन्तो ।
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मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मण्णए मणुओ ।। ११ ।।' 'जो देहे णिरवेक्खो णिहंदो णिम्ममो णिरारम्भो । आदसहावे सुरओ जो इसो लहइ णिव्वाणं ।। १२ ।। ' (क) 'परदव्वरओ बज्झदि विरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । एसो जिउवदेसो समासदो बन्धमुक्खस्स ।। १३ ।।' (ख) ' सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ नियमेण ।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माई ।। १४ ।।' (ग) 'जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दट्ठट्ठकम्मेहिं ।। १५ ।।' 'परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई होइ । इय णाऊण सदव्वे कुह रई विरइ इयरम्मि ।। १६ ।।'
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