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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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आत्मा का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है यद्यपि वह योगीन्दुदेव के योगसार से परवर्ती रचना है। अमितगति के योगसार में त्रिविध आत्मा का संकेत रूप से भी कोई उल्लेख नहीं है; किन्तु उसकी विषयवस्तु की समालोचना करने पर उसमें बहिरात्मा,' अन्तरात्मा और परमात्मा के लक्षण अवश्य देखे जा सकते हैं।७४
२.४.६ आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में
त्रिविध आत्मा श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में सर्वप्रथम आत्मा की इन तीन अवस्थाओं का निर्देश किया है। वे लिखते हैं कि आसक्त व्यक्ति बाह्यात्मा, योगी या साधक अन्तरात्मा और आत्मस्वभाव में लीन परमात्मा है।
२.४.१० बनारसीदास के ग्रन्थ और त्रिविध आत्मा
जहाँ तक बनारसीदास के लेखन का प्रश्न है, हमें उनकी चार कृतियों के बारे में जानकारी उपलब्ध होती है : १. बनारसी विलास;
२. नाममाला; ३. अर्द्धकथानक; और ४. समयसार नाटक । उपर्युक्त चार ग्रन्थों में आध्यात्मिक दृष्टि से समयसार नाटक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। आध्यात्मिक अमृत से परिपूर्ण इस ग्रन्थ में हमें स्पष्ट रूप से कहीं भी त्रिविध आत्मा की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। चाहे बनारसीदासजी ने अपनी इस
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-योगसारप्राभृत ।
योगसारप्राभृत, गा. ३३-३४ एवं ३६-४१ । 'पर-द्रव्य-बहिर्भूतं स्व-स्वभावमवैति यः पर-द्रव्ये स कुत्रापि न च द्वेष्टि न रज्यति ।। ५ ॥' 'अभिन्नमात्मनः शुद्धं ज्ञानदृष्टित्रयं स्फुटम् । चारित्रं चर्यते शश्वच्चारु-चारित्रवेदिभिः ।। ४० ।।' 'उदेति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् । कर्मणः क्षयतः सर्व क्षयोपशमतः परम् ।। १० ।।' 'बाह्यात्मानमपास्य प्रसत्ति भाजाऽन्तरात्मना योगी । सततं परमात्मानं विचिन्त्येत्तन्मयत्वाय ।। ६ ।।'
-वही ।
-योगसारप्राभृत ।
-योगशास्त्र, द्वादशप्रकाश, ६ ।
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