Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अध्याय ३
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बहिरात्मा
३.१ बहिरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण
त्रिविध आत्मा की चर्चा करते हुए प्रायः सभी जैनाचार्यों ने बहिरात्मा का उल्लेख किया है । प्रस्तुत अध्याय में हम सर्वप्रथम बहिरात्मा के स्वरूप की चर्चा करेंगे । निश्चयनय से तो आत्मा आत्मा ही है और इस आधार पर आत्मा के भेद करना भी सम्भव नहीं है । वस्तुतः त्रिविध आत्मा की जो चर्चा है वह व्यवहारनय की अपेक्षा से ही है । व्यक्ति का जीवन और जीवनशैली जिस प्रकार की होती है उसी के आधार पर उसे बहिरात्मा, अन्तरात्मा या परमात्मा कहा जाता है । वस्तुतः बहिरात्मा शब्द इस तथ्य का सूचक है कि जिस व्यक्ति की जीवनदृष्टि बहिर्मुखी है उसे ही बहिरात्मा कहा जाता है। वस्तुतः आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं होता है । जो भेद होता है वह उसके जीवन और जीवन शैली के आधार पर होता है। जैनाचार्यों के अनुसार जो सांसारिक विषयभोगों में रत रहते हैं उन्हें ही अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझते हैं और पर-पदार्थों में अपनेपन का आरोपण कर उनके भोग में जो आसक्त बने रहते हैं, उन्हें ही बहिरात्मा कहा जाता
है । इस प्रकार बहिरात्मा का स्वरूप उसकी जीवनदृष्टि पर आधारित है। जो अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को भूलकर शरीर, इन्द्रिय, मन और बाह्य पदार्थों को ही अपना मानती है वही बहिरात्मा है। दूसरे शब्दों में अनात्मरूप बाह्य विषयों में अपनेपन का आरोपण करने वाला व्यक्ति ही बहिरात्मा है । स्वरूप की अपेक्षा से हम बहिरात्मा उसे कह सकते हैं जो अनात्म में आत्मबुद्धि रखती है दूसरे शब्दों में पर-पदार्थों को अपना मानती है जैनाचार्यों ने बहिरात्मा को, मूढ़ आदि नामों से भी अभिव्यक्त किया है । यदि संक्षेप में कहना हो तो मूढ़ आत्मा ही बहिरात्मा है क्योंकि
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