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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
उसकी जीवनदृष्टि सम्यक् नहीं होती । वह अपने शुद्ध स्वरूप को भूलकर पर - पदार्थों में ममत्व बुद्धि का आरोपण करती है । जो अपना नहीं है उसे ही अपना मानती है। संसार के बाह्य पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं क्योंकि वे उसके ज्ञान के विषय हैं और जो-जो भी आत्मा के ज्ञान के विषय हैं, वे सब 'पर' हैं । आत्मा तो ज्ञान स्वरूप है । अतः ज्ञान के समस्त बाह्य विषय 'पर' हैं। उनमें अपनेपन का आरोपण करना, यह स्वरूप की विस्मृति है और स्व-स्वरूप की विस्मृति ही बहिरात्मा की परिचायक है। जो अपने स्व-स्वरूप को भूलकर पर - पदार्थों में ममत्वबुद्धि का आरोपण करता है, उसे ही बहिरात्मा कहा जाता है । स्वरूप की विस्मृति बहिरात्मा है और स्वरूप की स्मृति अन्तरात्मा है । बहिरात्मा का जीवन वस्तुतः भौतिकवादी होता है । भौतिकवादी या भोगवादी जीवन को अपनाकर अनात्म में आत्मबुद्धि रखते हुए जो जीता है, वही बहिरात्मा है। भारतीय दर्शनों में चार्वाकदर्शन को हम बहिरात्मवादी दर्शन कह सकते हैं ।
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जो आत्मा शरीर को ही सर्वस्व मानती है और दैहिक वासनाओं की पूर्ति को ही एकमात्र जीवन का लक्ष्य मानती है, वही बहिरात्मा है । वह जड़ पदार्थों के भोग को ही विशिष्ट महत्त्व देती है । वही उसकी जीवनदृष्टि होती है :
“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा धृं पिवेत ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः । ।" "
अर्थात् जीवनपर्यन्त खाओ, पीयो और मौज उड़ाओ या सुख से जीओ और ऋण लेकर भी घी पी जाओ; पर-भव की तनिक भी चिन्ता मत करो; मौज-मस्ती से जीवन यापन करो । त्याग और तपश्चर्या करने से क्या फायदा, पुनर्जन्म कहाँ होगा, यह किसने देखा?
बहिरात्मा भौतिकता की चकाचौंध में आत्मा और देह को एक ही मानती है । वह देह को अपना मानती है और अपने को देहरूप मानती है। देह को अपना मानकर दैहिक वासनाओं की पूर्ति में संलग्न बनी रहती है । वह देह और दैहिक वासनाओं की पूर्ति के
9 चार्वाकदर्शन |
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