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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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अन्तरात्मा कहलाती है। आत्मा जब निजस्वरूप में स्थित हो जाती है; वैभाविक अवस्था का त्याग करके स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त करती है; शुक्लध्यान की अवस्थाओं को पार करके अन्त में मुक्त अवस्था को प्राप्त करती है, तब परमात्मा कहलाती है।"७८ इसलिए भैया भगवतीदासजी का कहना है कि आत्मा एक होते हुए भी त्रिविध आत्मा की अवस्था को प्राप्त करती है।
(ख) धानतराय के अनुसार त्रिविध आत्मा
धानतराय के धर्मविलास में त्रिविध आत्मा की विवेचना उपलब्ध होती है। वे लिखते हैं कि व्यवहार से आत्मा के तीन भेद हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा; किन्तु निश्चय से तो एक चैतन्य आत्मा ही है। आत्मा की दृष्टि से सभी की आत्मा समान रूप से प्रतीत होती है। किन्तु आत्मा की शुभाशुभ, शुद्ध
और विशुद्ध अवस्था से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद किये जा सकते हैं। आत्मा तो सभी चेतन प्राणियों में निहित होती है, किन्तु आत्मा की साधनावस्था या श्रेणी की अपेक्षा से पर्याय के तीन भेद किये गए हैं। जब तक आत्मा की बाह्य में रूचि होती है तब तक वह बहिरात्मा है। धीरे-धीरे जब उसके परिणामों में शुद्धि आती है; तब अन्तरात्मा और जब आत्मा संसार और देह से पूर्णतः मुक्त होकर शुद्धावस्था को प्राप्त करके अनन्तसुखानन्द में विराजमान होती है अर्थात् सिद्धावस्था को उपलब्ध कर लेती है तब वह परमात्मा कही जाती है। ये तीनों आत्माओं की पर्यायें एक आत्मा में निहित होती है।
(ग) उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार त्रिविध आत्मा
इसी प्रकार श्वेताम्बर विद्वान उपाध्याय यशोविजयजी की योगावतार द्वात्रिंशिका में त्रिविध आत्मा की चर्चा उपलब्ध होती है।
७८ 'एक जु चेतन द्रव्य है, तिन में तीन प्रकार ।
बहिरातम अन्तर तथा परमात्म पद सार ।। २ ।।' 'तीन भेद व्यवहार सौ, सरब जीव सब ठाम । बहिरन्तर परमात्मा, निहचै चेतनराम ।। ४१ ।।'
-ब्रह्म विलास, परमात्म छत्तीसी ।
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-धर्मविलास, अध्यात्म पंचासिका।
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