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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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सिद्धान्त का सारतत्त्व है।४
२.४.६ शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में त्रिविध आत्मा - आचार्य शुभचन्द्र को दिगम्बर परम्परा का एक प्रमुख आचार्य माना जाता है। उनका ग्रन्थ ज्ञानार्णव सुप्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से त्रिविध आत्मा का संकेत तो उपलब्ध होता है;६५ किन्तु इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने त्रिविध आत्मा की अवधारणा को आधार बनाकर कोई चर्चा नहीं की है। ज्ञानार्णव की विषयवस्तु का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने त्रिरत्न, पंचमहाव्रत, द्वादशानुप्रेक्षा और चतुर्विध ध्यान को ही आधार बनाकर इसकी रचना की है। फिर भी यदि हम उनके ग्रन्थ का समग्र अवलोकन करते हैं तो उसमें प्रसंगानुसार त्रिविध आत्मा के लक्षण और स्वरूप की कुछ चर्चा उपलब्ध हो जाती है। उदाहरणार्थ उन्होंने २८वें सर्ग में स्पष्ट रूप से अन्तरात्मा के गुणस्थान की अपेक्षा से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट - ऐसे तीन भेद किये हैं।६ इसी प्रकार एकादश सर्ग में बहिरात्मा के लिए अल्पसत्त्व, निःशील, दीन, इन्द्रियों द्वारा विजित - ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार शुक्लध्यान की चर्चा में अरिहन्त और सिद्धों के गुणों की चर्चा की है।
२.४.७ गुणभद्र के आत्मानुशासनम् और उसकी
प्रभाचन्द्रकृत टीका में त्रिविध आत्मा गुणभद्र के आत्मानुशासनम् में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
-वही ।
६४ 'मग्गण-गुण-ठाणइ कहिया विवहारेण वि दट्ठि।। _ णिच्छय गइँ अप्पा मुणहि जिम पावहु परमोट्ठ ।। १७ ।।' ६५ 'त्रिप्रकारं स भूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थितः ।
बहिरन्तः परश्चेति विकल्पैर्वक्ष्यमाणकैः ।। ५ ।।' ६६ 'ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञेयास्तेषां ध्यानान्यपि त्रिधा ।
लेश्याविशुद्धियोगेन फलसिद्धिरुदाहृदा ।। २६ ।।' ६७ 'नाल्पसत्त्वैर्न निःशीलैर्न दीनै क्षनिर्जितैः ।
स्वप्नेऽपि चरितुं शक्यं ब्रह्मचर्यमिदं नरैः ।। ५ ।।'
-ज्ञानार्णव सर्ग ३२ ।
- सर्ग २८ ।
- ज्ञानार्णव सर्ग ११ ॥
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