Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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निर्विकल्प, स्वसंवेदन और देह से भिन्न ज्ञानरूप परिणमन करनेवाली आत्मा को विचक्षण या पण्डित (अन्तरात्मा) कहा है
और जो आत्मा समस्त देहादिक परद्रव्यों का त्याग करके शुद्ध-बुद्ध स्वभाववाली हो - जिसमें रागादि का अभाव हो वह अनन्तज्ञान युक्त आत्मा परमात्मा कहलाती है। योगीन्दुदेव की दृष्टि में जो जीव देह को आत्मा समझता है, वह वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुए परमानन्द सुख की अनुभूति नहीं कर सकता है। इस कारण वह आत्मा मूर्ख या मूढ़ (बहिरात्मा) है। वे आगे लिखते हैं कि इन त्रिविध आत्मा की योगीन्दुदेव में बहिरात्मा त्याग करने योग्य है; सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा उपादेय है और मात्र केवलज्ञानादि गुणोंवाले शुद्ध परमात्मा ध्यान करने योग्य हैं।।
(ख) योगसार में त्रिविध आत्मा __ योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश के अतिरिक्त योगसार में त्रिविध आत्माओं का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि इस आत्मा को तीन प्रकार की जानना चाहिये :
(१) बहिरात्मा; (२) अन्तरात्मा; और (३) परमात्मा।६० __ इसमें निभ्रान्त होकर बहिरात्मा का त्याग करें और अन्तरात्मा में स्थित होकर परमात्मा का ध्यान करें। इस प्रकार योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश के समान ही योगसार में भी त्रिविध आत्माओं की चर्चा प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने न केवल त्रिविध आत्माओं का उल्लेख किया है अपितु उनके लक्षण भी बताये हैं। वे लिखते हैं कि मिथ्यादर्शन से मोहित होकर जो परमात्मा के स्वरूप को नहीं जानती है उसे ही जिनेन्द्रदेव ने बहिरात्मा कहा है। यह बहिरात्मा मिथ्यादर्शन से मोहित होने के कारण संसार में बार-बार भ्रमण
-परमात्मप्रकाश ।
'अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्कै जेण । मेल्लिवि सयलु वि दब्बु परु सो मुणहि मणेण ।। १५ ।।' 'ति-पयारो अप्पा मुणहि परु अंतरू बहिरप्पु । पर सायहि अन्तर सहिउ बाहिरु चयहि णिमंतु ।। ६ ।।'
-योगसार ।
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