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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
(१) बहिरात्मा; (२) अन्तरात्मा; और (३) परमात्मा । जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने केवल त्रिविध आत्मा का उल्लेख किया; वहाँ स्वामी कार्तिकेय ने परमात्मा के दो भेद अर्हन्त और सिद्ध स्वीकार किये हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय त्रिविध आत्मा की इस चर्चा में अपने पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द से एक कदम आगे जाते हैं। वे कहते हैं कि तीव्र कषायों से आविष्ट जीव और शरीर को एक मानने वाला मिथ्यात्व परिणति से युक्त बहिरात्मा होती है। इसके विपरीत देह और
आत्मा के भेद को जाननेवाली, जिनवचन से कुशल एवं कर्मों की निर्जरा करनेवाली - ऐसी अन्तरात्मा होती है। यहाँ वे अन्तरात्मा के भी तीन भेद करते हैं। उनके अनुसार (१) उत्कृष्ट; (२) मध्यम; और (३) जघन्य के भेद से अन्तरात्मा तीन प्रकार की है। प्रमादों पर सम्पूर्णरूप से विजय और पंचमहाव्रतों से युक्त सदैव धर्म और शुक्लध्यान से युक्त आत्मा उत्कृष्ट अन्तरात्मा कही जाती है। जिनवचनों में अनुरक्त, उद्यमशील, महासत्ववाले श्रावकगुणों से युक्त श्रावक एवं प्रमत्तसंयत मुनि अन्तरात्मा है। यहाँ हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय मध्यम अन्तरात्मा के भी दो वर्ग करते हैं :(१) व्रतों से युक्त श्रावक; तथा (२) प्रमत्तसंयत मुनि। जघन्य अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि व्रत धारण करने में असर्मथता का अनुभव करते हुए अपनी आत्मा की निन्दा करने वाले और गुण ग्रहण करने की भावना में अनुरक्त तथा जिनेन्द्र की भक्ति से युक्त अविरतसम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा कहे गये हैं। इसी प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी
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'स-सरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणियसयलत्था । __णाणसरीरा सिद्धा, सब्बुत्तम सुक्खसंपत्ता ।। १६८ ।।'
-वही। मिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्वकसाएण सुठु आविट्ठो । जीवं देहं एक्क, मण्णंतो होदि बहिरप्पा ।। १६३ ।।'
-वही । 'जे जिणवयणे कुसलो, भेयं जाणंति जीवदेहाणं । णिज्जियदुट्ठमया, अन्तरअप्पा य ते तिविहा ।। १६४ ।।' ___ -स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा। 'पंचमहब्वयजुत्ता, धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्वं । णिज्जियसयलपमाया, उक्किट्ठा अन्तरा होति ।। १६५ ।।
-वही । ५३ 'सावयगुणहिँ जुत्ता, पमत्तविरदा य मज्झिमा होति।। जिणवयणे अणुरत्ता, उवसमसीला महासत्ता ।। १६६ ।।'
-वही ।
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