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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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में व्यक्ति समस्त पदार्थों को देख सकता है। निद्रा अवस्था (सुषुप्त अवस्था) में मात्र गहरी निद्रा की अनुभूति होती है। स्वप्न अवस्था में जो पदार्थ देखे हुए हैं, उन पदार्थों का अवलोकन कर सकते हैं। जैनदर्शन में तुरीयावस्था को उजागर अवस्था, बहुजागरण अवस्था, कैवल्य अवस्था या समाधि अवस्था के रूप में स्वीकार किया गया है। यह तुरीय अवस्था मात्र अरिहन्तों एवं सिद्धों में पाई जाती है। क्योंकि जब ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों की सम्पूर्ण प्रकृतियों का क्षय हो जाता है, तब इन कर्म-प्रकृतियों पर आधारित निद्रा, स्वप्न और जाग्रत ये तीन अवस्थाएँ भी लुप्त होजाती हैं। तुरीयावस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन से युक्त होकर आत्मा शुद्ध स्वभाव में लीन हो जाती है। विशुद्धावस्था में वह केवल ज्ञाताद्रष्टा-साक्षी भाव में जीता है।
२. सुषुप्तावस्था में चैतन्य की अनुभूति कैसे होती है?
न्यायवैशेषिकदर्शन एवं मीमांसादर्शन के प्रभाकर सम्प्रदाय के अनुसार सुषुप्तावस्था में चैतन्य तत्त्व की अनुभूति नहीं हो सकती है। उनके अनुसार सुषुप्तावस्था में आत्मा में ज्ञान या चैतन्य का अभाव होता है। सांख्यदर्शन एवं मीमांसा के कुमारिलभट्ट सम्प्रदाय की अपेक्षा से सुषुप्तावस्था में स्मृति तो रहती है और उस स्मृति के बिना अनुभूति सम्भव नहीं है। जैसे “मैं निश्चेष्ट होकर सो गया था।" इससे यह सिद्ध होता है कि सुषुप्त अवस्था में भी आत्मा में चैतन्य विद्यमान रहता है, - तभी अनुभूति रहती है। किन्तु मीमांसादर्शन का प्रभाकर सम्प्रदाय एवं न्यायवैशेषिकदर्शन उपर्युक्त कथन से सहमत नहीं है। जबकि जैनियों का मानना है कि सुषुप्तावस्था में दर्शनावरणीयकर्म चेतना को ऐसे आवृत्त कर लेते हैं; जैसे घने बादल सूर्य को आच्छादित कर लेते हैं। फिर भी उसका प्रकाश गुण पूर्णतः समाप्त नहीं होता है - धुंधला प्रकाश तो दिखाई देता ही है। वैसे ही निद्राकाल में चैतन्य सूक्ष्मरूप से और निर्विकार अवस्था में आत्मा में विद्यमान रहता है। अतः यह सिद्ध होता है कि सुषुप्तावस्था में भी चेतना विद्यमान रहती है; वह नष्ट
t पंचदशी, ६/८६-६० ।
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