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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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कुन्दकुन्द की कृति है; इसको लेकर भी विद्वानों में मतभेद की स्थिति है । कुछ विद्वानों का कहना है कि अष्टप्राभृत में अपभ्रंश का प्रभाव देखा जाता है जबकि कुन्दकुन्द के समयसार आदि ग्रन्थ अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के काल को लेकर भी मतभेद है । जहाँ परम्परागत विद्वान उन्हें ईसा की प्रथम शताब्दी का आचार्य मानते हैं तो अन्य उनका काल ईसा की ५वीं, ६ठी शताब्दी तक ले जाते हैं। डॉ. सागरमल जैन ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान के उल्लेखों के आधार पर उन्हें पांचवी शताब्दी से परवर्ती माना है । यहाँ हम इन विवादों में न पड़कर केवल इतना ही कहना चाहेंगे कि अर्धमागधी आगम और शोरसेनी आगम साहित्य में त्रिविध आत्मा की स्पष्ट अवधारणा का अभाव है। अतः यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन में आगमों और आगमतुल्य रचनाओं के पश्चात् ही त्रिविध आत्मा की अवधारणा का विकास हुआ है । सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षप्राभृत (मोक्खपाहुड) में त्रिविध आत्मा का स्पष्ट उल्लेख किया है । आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा में त्रिविध आत्मा की अवधारणा का उल्लेख मिलता है । स्वामी कार्तिकेय ने न केवल त्रिविध आत्मा का उल्लेख किया है अपितु उन्होंने परमात्मा का अर्हन्त और सिद्ध ऐसे रूपों में वर्गीकरण किया है । इसी क्रम में तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के लेखक पूज्यपाद देवनन्दी ने भी अपने एक अन्य ग्रन्थ समाधितन्त्र में त्रिविध आत्मा की अवधारणा को उल्लेखित किया है । निश्चय ही ये सभी ग्रन्थ छठी शताब्दी के लगभग के हैं। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा का उल्लेख लगभग पांचवी - छठी शताब्दी से मिलने लगता है । इसके पश्चात् त्रिविध आत्मा की अवधारणा का उल्लेख योगीन्दुदेव के परमात्मप्रकाश" और योगसार " में है, जिसमें आत्मा
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२६ 'जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य ।
परमप्पा विय दुविहा अरहंता तहय सिद्धा य ।। १६२ ।। ' - स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा । 'बहिरंतः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु ।
-समाधितंत्र |
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उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ।। ४ ।।'
'मुठु विक्खणु बंभु पख अप्पा ति - विहु हवेइ । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जजु मृदु हवेइ ।। १३ 11'
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-परमात्मप्रकाश ।
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