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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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तुलना जैन परम्परा में क्षायिकश्रेणी के दसवें सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान से की जा सकती है। त्रिविध आत्मा की अवधारणा से तुलना करने पर यह भूमि भी उत्कृष्ट अन्तरात्मा की है। दूरंगमाभूमि : इस भूमि में साधक एकान्तिक मार्ग अर्थात् शाश्वतवाद, उच्छेदवाद आदि से परे हो जाता है। ऐसे विकल्प भी उसके मन में नहीं उठते हैं। जैनदर्शन के अनुसार यह आत्मा की पक्षातिक्रान्तदशा या निर्विकल्पदशा है। साधक इस भूमि में साधना की पूर्णता को प्राप्त करता है। इस भूमि को साधक के आत्म साक्षात्कार की अवस्था भी कह सकते हैं। बौद्ध परम्परानुसार दूरंगमाभूमि में बोधिसत्त्व की साधना पूर्ण हो जाती है। वह निर्वाण प्राप्ति के लिए सर्वथा योग्य बन जाता है और संसार के प्राणियों को निवार्णमार्ग (मोक्ष) की
ओर प्रेरित करता है। इस भूमि में वह सभी पारमिताओं का व्यवस्थित रूप से पालन करता है एवं कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है। इस भूमि को जैनदर्शन के बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण के समकक्ष माना जा सकता है। जैनपरम्परा के अनुसार यह भूमि उत्कृष्ट अन्तरात्मा के समकक्ष मानी जा सकती है। अचलाभूमि : संकल्पशून्यता और विषयरहित अनिमित्त विहारी समाधि की प्राप्ति के कारण इस भूमि को अचला कहा जाता है। विषयरहित चित्त संकल्पशून्य (निर्विकल्प) होता है। इसलिए यह अविचल होता है। इस भूमि में चित्त की चंचलता और विचारों में विषय विकार आदि का पूर्णतः अभाव होता है। निर्विकल्पदशा (संकल्पशून्य) होने से इस भूमि में तत्त्व के साक्षात्कार की अनुभूति होती है। इसकी तथा अग्रिम साधुमतीभूमि की तुलना जैनदर्शन के सयोगीकेवली नामक
तेरहवें गुणस्थान से की जा सकती है। (१०) साधुमतीभूमि : इस साधुमती भूमिवाले बोधिसत्त्व का हृदय
समग्र प्राणियों के प्रति करुणाशील तथा मैत्री, प्रमोद आदि भावना से युक्त होता है। इस स्तर पर काम-वासना, देह-तृष्णा आदि सर्वथा नष्ट हो जाती है। यह पूर्ण की भूमिका है। इसमें तृष्णा और आसक्ति का पूरी तरह से अभाव हो जाता है। फिर भी इस भूमि के साधक सत्त्वपाक अर्थात् संसार के सभी प्राणियों में बोधिबीज को प्रस्फुटित
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