Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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(१) रूपराग; (२) अरूपराग; (३) मान; (४) औद्धत्य; और (५) अविद्या ।
जब साधक इन पांचों संयोजनों का भी क्षय कर देता है, तब विकास की अग्रिम अर्हत् भूमिका को प्राप्त करता है। यदि साधक अर्हत् की अग्रिम भूमिका को प्राप्त करने से पूर्व साधनाकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है तो ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पांच संयोजनों को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त करता है। फिर वह पुनः जन्म नहीं लेता है। इस अनागामीभूमि की तुलना जैनदर्शन के क्षीणमोह गुणस्थान से की जा सकती है; किन्तु वह अनागामी भूमि के अन्तिम चरण में ही समुचित होती है, जब अनागामी भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट होने पर अर्हत् भूमि की ओर अग्रसर होने की तैयारी में होता है। वस्तुतः आठवें से बारहवें गुणस्थान की अवस्थाएँ अनागामीभूमि के अन्तर्गत आती हैं। त्रिविध आत्मा की अवधारणा से तुलना करने पर यह अनागामी भूमि भी उत्कृष्ट
अन्तरात्मा के समरूप मानी जा सकती है। (४) अर्हतावस्था : अर्हतावस्था विकास की उच्चतम पराकाष्ठा है।
साधक जब दसों संयोजनों को सम्पूर्णतः क्षय कर देता है तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है। उसके समग्र बन्धनों के क्षय होने पर उसके क्लेशों आदि का भी प्रहाण हो जाता है। वस्तुतः यह जीवनमुक्ति की अवस्था है। जैनदर्शन भी इसे अर्हतावस्था या सयोगीकेवली गुणस्थान कहता है। जैन और बौद्ध परम्पराएँ इस भूमि के स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त समीप हैं। दोनों के अनुसार इस अवस्था में राग-द्वेष एवं मोह का पूर्णतः अभाव होता है। अर्हतावस्था को प्राप्त व्यक्ति नियम से निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त करता है। त्रिविध आत्मा की अवधारणा की दृष्टि से तुलना करने पर यह अवस्था परमात्मा की अवस्था है।
२.३.१ महायान सम्प्रदाय की दस भूमियाँ
बौद्धधर्म में महायान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाएँ हैं। जैसा कि हमने पूर्व में कहा है कि बौद्धदर्शन के महायान सम्प्रदाय का लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण की प्राप्ति न होकर
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