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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
होता है ।
जैनदर्शन में इन चार अवस्थाओं का विवेचन सर्वप्रथम मल्लवादी" ने द्वादशारनयचक्र में किया है। वे चार अवस्थाएँ इस प्रकार हैं : जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। जैनदर्शन के अनुसार संसारी जीवों में ये तीन अवस्थाएँ रहती हैं : निद्रा ( सुप्त ); स्वप्न और जाग्रत । इनकी अनुभूति प्रतिदिन व्यवहार में होती है क्योंकि संसारी जीव कर्मप्रकृतियों से आबद्ध होता है । निद्रा और स्वप्नदशा का अनुभव दर्शनावरणीय कर्म के उदय से होता है । योगवाशिष्ठ में भी इन तीन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । किन्तु आनन्दघनजी इन चार अवस्थाओं को निम्न प्रकार से स्वीकार करते हैं ।
'निद्रा सुपन उजागरता तुरीय अवस्था आवी । निद्रा सुपन दशा रिसाणी, जाणि न नाथ मनावी हो ।।'
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अर्थात् वे कहते हैं कि परमात्मा को निद्रा, स्वप्न, जाग्रत और उजागर (तुरीय) इन चार अवस्थाओं में से उजागर या तुरीयावस्था उपलब्ध होती है । जैन दर्शनानुसार उजागर का अर्थ केवल - ज्ञान-दर्शन की अवस्था है । परमात्मा को जब उजागरदशा प्राप्त होती है, तब निद्रा और स्वप्नावस्थाएँ समाप्त हो जाती हैं अथवा ये कुपित होकर चली जाती हैं । परमात्मा उन्हें कुपित देखकर भी आश्रय नहीं देते। निद्रा शब्द के स्थान पर उपनिषद् में सुषुप्त शब्द का प्रयोग हुआ है । स्वप्नावस्था में अर्द्धनिद्रित और अर्द्धजाग्रत अवस्था रहती है। इसमें शरीर सोता है लेकिन मन जागता है, जो स्वप्न में भिन्न-भिन्न कल्पनाओं की प्रतीति करवाता है । तीसरी जाग्रत अवस्था है यह आत्मानुभूति की या अप्रमत्त चेतना की अवस्था है । जब जीव अप्रमत्त या जाग्रत होता है तब वह अपने स्वभाव अर्थात् ज्ञाताद्रष्टा भाव में स्थिर हो जाता है। चौथी अवस्था तुरीय है जिसे जैन दार्शनिकों ने उजागर अवस्था
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‘तस्य चतस्रोऽवस्था जाग्रत् सुप्त, सुषुप्त - तुरीयान्वर्थाख्याः एताश्च बहुधा व्यवतिष्ठते (तस्येति) तस्य अनन्तर प्रतिपादित चैतन्यतत्त्वस्येमाश्चस्रोतस्त्रोऽवस्थाः जाग्रतसुप्तसुषुप्ततुरीयानवर्थाख्याः । जाग्रदवस्था, सुप्त सुषुप्तावस्था, तुरीयावस्था एताश्चान्वर्थाः ।'
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- द्वादशारनयचक्र, पृ. २१८ / २२० प्रथम विभाग ।
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