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आचारांगसूत्र ४०, भगवतीसूत्र *" आदि प्राचीन जैन आगमों में प्रकारान्तर से इन तीनों अवस्थाओं का अन्य नामों से प्रकीर्ण उल्लेख मिल जाता है । फिर भी आत्मा के इस त्रिविध वर्गीकरण का प्रमुख श्रेय तो आचार्य कुन्दकुन्द * को ही जाता है । दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के परवर्ती आचार्यों ने उन्हीं का अनुकरण किया है। स्वामी कार्तिकेय स्वामी कार्तिकेय ४६३, योगीन्दुदेव ४६४, पूज्यपाद *९५ अमृतचन्द्र*e८
४६५
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.४६६
शुभचन्द्राचार्य४६७,
गुणभद्र
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हेमचन्द्र ४६६ अमितगति, देवसेन", ब्रह्मदेव", आनन्दघन१०३, देवचन्द्र और यशोविजय' आदि सभी ने आत्मा के तीन प्रकारों का अपनी-अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है। प्रस्तुत गवेषणा में हम इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा करेगें ।
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
५०५
४६० आचारांगसूत्र में मूढ़, पण्डित, धीर, अन्यदर्शी के प्रकीर्ण उल्लेख हैं । भगवतीसूत्र में आठ आत्माओं का उल्लेख है ।
४६२
मोक्खपाहुड गा. ४ ( नियमसार गा. १४६ - ५० ) । ४६३ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. १६२ ।
४६४ परमात्मप्रकाश १३ १४, १५ एवं योगसार ६ ।
।। अध्याय १ समाप्त ।।
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४६५ समाधितंत्र गा. ४-५ ।
४६६ योगशास्त्र द्वादशप्रकाश ६ ।
४६७ ज्ञानार्णव गा. ५ ।
४६८
४६६
५०० योगसार प्राभृत गा. ३४, ३६, ४० एवं ४१ । ५०१ आराधनासार ८५ ।
५०२ ब्रह्मविलास, परमात्म छत्तीसी पृ. २२७ ।
५०३ आनन्दघनग्रन्थावली पद ६७ एवं सुमति जिन स्तवन । ५०४ विचारत्नसार प्रश्न १७८ (ध्यानदीपिका चतुष्पदी ४, ८, ७ ) ।
५०५ अध्यात्मपरीक्षा १२५ ।
समयसार नाटक गा. १०/८५-८६ ।
आत्मानुशासनम् श्लोक १६२-६३ पृ. १८४ से १६६ ।
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