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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
जीवनशक्ति है। इस स्तर पर व्यक्ति इन्द्रिय-संवेदनाओं के
आधार पर जीता है। (३) मनोमयकोश : प्राणमयकोश के ऊपर मनोमयकोश है।
मनोमयकोश विचार या विवेकशक्ति का सूचक है। विचारशीलता ही मनोमयकोश का प्रमुख कार्य है। इस स्तर पर व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया विवेकपूर्ण होती है। मन इन्द्रियों के अधीन न होकर उनका स्वामी होता है। प्राणमयकोश के स्तर पर मन इन्द्रियों और शारीरिक संवेदनाओं से संचालित होता है; जबकि मनोमयकोश के स्तर पर मन इन्द्रियों और शरीर का नियन्त्रक
या अनुशासक होता है। (४) विज्ञानमयकोश : चतुर्थकोश विज्ञानमयकोश है। यहाँ चेतना
शरीर, इन्द्रियों और मन से ऊपर उठी हुई होती है। यह सजग एवं विवेकशील चेतना का स्तर है। इस स्तर पर आत्मा शरीर, इन्द्रियों और मन से अपने पृथक्त्व की अनुभूति करती है और उसकी विवेकशक्ति शरीर, इन्द्रिय और मन से अप्रभावित रहती है। यह विशुद्ध चेतना की अवस्था है। इसे
जैनदर्शन में अप्रमत्त अवस्था कहा जा सकता है। (५) आनन्दमयकोश : विज्ञानमयकोश के ऊपर आनन्दमयकोश की
स्थिति है। यह आत्मसाक्षात्कार की अवस्था है। इस स्तर पर समस्त विचार और विकल्प भी विलय हो जाते हैं। व्यक्ति आत्मिक आनन्द में निमग्न रहता है। यह अवस्था पूर्णतः समाधि की अवस्था है। इसे ही उपनिषदों में तुरीयावस्था भी कहा गया है।
इस प्रकार उपनिषदों में वर्णित ये पंचकोश आत्मा के उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास के ही सूचक हैं। एक अन्य अपेक्षा से इन्हें देहात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मनःआत्मवाद, विज्ञानात्मवाद या शुद्धात्मवाद कहा जा सकता है। वस्तुतः इनके माध्यम से ही व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक विकासयात्रा को सम्पन्न करता है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने अन्नमयकोश को शरीर एवं इन्द्रियजन्य चेतना कहा है। उन्होंने प्राणमयकोश को जीवनशक्ति, मनोमयकोश को वैचारिक या बौद्धिकशक्ति, विज्ञानमयकोश को शुद्ध चेतनसत्ता और
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