________________
१२४
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
गुणस्थान तक कषायों की सत्ता रही हुई है। चाहे उनकी तीव्रता आदि में भेद हो फिर भी उनकी सत्ता होने के कारण चौथे से लेकर दसवें गुणस्थान तक कषायात्मा की सत्ता को स्वीकार करना पड़ेगा। अतः अन्तरात्मा में आठों ही आत्मा की सत्ता होती है। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा में सम्यक्चारित्र का अभाव होता है, अतः उसमें चारित्रात्मा की सत्ता कैसे मानी जाय। किन्तु यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि चारित्रात्मा का यह कथन चारित्र गुण की अपेक्षा से ही है; अतः अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा में मिथ्यादृष्टिरूप चारित्र की सत्ता रही हुई है। दूसरे यह कि अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा भी कम से कम अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम करती ही है। अतः उसकी अपेक्षा से उसमें आंशिक चारित्र भी स्वीकार किया जा सकता है। इस प्रकार अन्तरात्मा में चतुर्थ गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक आठों ही आत्मा की सत्ता स्वीकार की जा सकती है।
जहाँ तक बहिरात्मा का चिन्तन है उसमें आठों ही आत्मा की सत्ता रही हुई है। यह सत्य है कि बहिर्मुख आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपरूप वीर्य का अभाव है तथा यह भी सत्य है कि उसमें ज्ञान, दर्शनादि गुणों का पूर्णरूप में प्रकटन भी नहीं है। फिर भी उसमें मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और मिथ्यापुरुषार्थ तो रहा हुआ ही है। साथ ही उसमें द्रव्यात्मा, उपयोगात्मा और कषायात्मा की भी सत्ता है। शरीर होने से तीनों योग भी हैं। अतः योगात्मा की भी सत्ता उसमें स्वीकार करनी होगी। इस प्रकार बहिरात्मा में भगवतीसूत्र में वर्णित आठों ही आत्माएँ पाई जाती हैं।
भगवतीसूत्र में अष्टविध आत्माओं की मुख्यरूप से यह चर्चा आत्मद्रव्य और आत्मपयार्य की अपेक्षा से ही है। इसमें कषायरूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org