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विषय प्रवेश
है; वैसे ही आत्मा भी परिणामी - नित्य है । देशकालादि निमित्त से तीनों कालों में मूल वस्तु के कायम रहने पर भी परिवर्तन होता रहता है; क्योंकि आत्मा परिणामी - नित्य है । इसी कारण सुख, दुःख आदि आत्मा के ही पर्याय हैं । पर्याय बदलती रहती हैं। पर्यायों की कालक्रम में जो भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं, वही द्रव्य का परिणामी पक्ष है । कुछ पर्याय एक अवस्था में तो कुछ किसी दूसरी अवस्था में होती हैं। सभी पर्याय एक साथ एक अवस्था में नहीं होते । आत्मा की पर्याय अधिक से अधिक पाँच भावोंवाली हो सकती है। वे इस प्रकार हैं :
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(१) औपशमिकभाव : औपशमिकभाव उपशम से उत्पन्न होता है । उपशम एक प्रकार की आत्मविशुद्धि है । कर्मों का उदय कुछ समय तक रोक देना या उनका प्रभाव शान्त हो जाना उपशम कहलाता है । आचार्य पूज्यपाद इसे एक उदाहरण के द्वारा समझाते हैं कि जैसे मलिन पानी में कतक को घुमाने से कुछ समय बाद कचरा नीचे बैठ जाता है, लेकिन वह पूर्णतः नष्ट नहीं होता नीचे दबा हुआ रहता है; उसी प्रकार कर्म के उदय को रोकनेवाले कारणों के संयोग से कर्मों का प्रभाव कुछ समय तक रुक जाता है। वह उपशम कहलाता है । उपशम से होनेवाला भाव औपशमिक कहलाता है। जीव के कर्मों का उदय जब तक रुकता है; तब तक यह भाव रहता है। इसमें स्थायित्व का अभाव होता है । उपशमित कर्म प्रकृतियाँ कभी भी पुनः जागृत होकर उदय में आ सकती हैं। यह भाव जीव को उस समय तक रहता है, जब तक उसके कर्मों का पुनः उदय नहीं हो जाता । उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र में औपशमिक भाव के दो भेदों का उल्लेख मिलता है :
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( १ ) औपशमिक सम्यक्त्व; और (२) औपशमिक चारित्र । ३४१ किन्तु षड्खण्डागम की धवला टीका में औपशमिक भाव के
'प्रतिपक्षकर्मणामुदयाभाव उपशमः, उपशमे भव औपशमिकः । '
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३३६ अध्यात्मकमल मार्तण्ड ३/८ ।
३४० सवार्थसिद्धि २/१
३४) तत्त्वार्थसूत्र २ / ३ (विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य सर्वार्थसिद्धि) ।
- गोम्मटसार जी. गा. ८ जी. प्र. टीका ।
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