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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
जैनाचार्यों ने त्रिविध आत्मा की अवधारणा को गुणस्थान की अवधारणा में भी अन्तर्भूत किया है। उसमें बताया गया है कि प्रथम तीन गुणस्थान बहिरात्मा के सूचक हैं। चतुर्थ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की अवस्थाएँ अन्तरात्मा की सूचक हैं तथा तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान परमात्मा के सूचक हैं। पुनः, अन्तरात्मा के भी गुणस्थान स्थानों की अपेक्षा से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट - ऐसे ३ भेद किये गए हैं। इन सबकी चर्चा हम षष्ठ अध्याय 'त्रिविध आत्मा और आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन' में करेंगे। अतः यहाँ केवल हम इतना ही इंगित करना चाहेंगे कि जिस प्रकार त्रिविध आत्मा की अवधारणा हमारे व्यक्तित्व की आध्यात्मिक विशुद्धि या आध्यात्मिक विकास की सूचक है उसी प्रकार से षड्लेश्याएँ, कर्म विशुद्धि की दस गुणश्रेणियाँ और चौदह गुणस्थानों की अवधारणाएँ भी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की सूचक हैं। यहाँ हम इन सब की गम्भीर चर्चा में न उतरकर अब अपने प्रतिपाद्य विषय त्रिविध आत्मा की अवधारणा पर विचार करेंगे।
१.११.१ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से त्रिविध
___ आत्मा की अवधारणा जैनदर्शन में जहाँ एक ओर आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण है; वहीं दूसरी ओर आत्मपूर्णता को आत्मा का स्वलक्षण कहा गया है। पारमार्थिक दृष्टि से तो परमतत्त्व या आत्मा सदैव अविकारी है। वह बन्धन और मुक्ति अथवा विकास और पतन से निरपेक्ष है। किन्तु जैन विचारणा में परमार्थ या निश्चयष्टि को जितना महत्त्व दिया गया है उतना ही महत्त्व व्यवहारदृष्टि को भी दिया गया है। विकास की प्रक्रियाएँ चाहे व्यवहारनय का विषय हो; परन्तु इससे उनकी यथार्थता में कोई कमी नहीं आती।४६६
४६६ (क) नियमसार ७७ ।
(ख) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४४६-४८ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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