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विषय प्रवेश
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जैनदर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता या मुक्ति की उपलब्धि को ही साधना का साध्य माना गया है। आध्यात्मिक साधना का अर्थ आत्मा के शुद्धस्वरूप या विकारीस्वरूप को मात्र शब्दों से जान लेने तक सीमित नहीं है; अपितु वह आत्मानुभूति सम्पन्न होने या वैभाविक अवस्था से हटकर आत्मा के शुद्ध निर्विकारं स्वरूप में रमण करने से है। इस साध्य की प्राप्ति के लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों से गुजरना हो सकता है। ये श्रेणियाँ साधक की साधना की ऊँचाइयों की मापक हैं। जैनदर्शन में आत्मा के आध्यात्मिक विकास को अनेक दृष्टियों से विवेचित किया गया है। पूर्व वर्णित लेश्या और गुणस्थान सिद्धान्त के साथ-साथ त्रिविध आत्मा की अवधारणा भी इसी विकास क्रम की सूचक है।
त्रिविध आत्मा की अवधारणा :
जैनदर्शन अध्यात्मवादी दर्शन है। अध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा के विकास से है। इस दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणाएँ भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से ही प्रतिपादित की गई हैं। आत्मा के विकास की दृष्टि से तीन अवस्थाएँ हैं :
(१) बहिरात्मा; (२) अन्तरात्मा; और
(३) परमात्मा।६८ आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ देहधारी जीवों की दृष्टि से प्रतिपादित की गई हैं। सामान्यतः आगमों में जीव के दो भेद हैं -
(१) सिद्ध; और (२) संसारी। संसारी जीवों में आत्मगुणों के विकास की दृष्टि से आत्मा की इन तीन अवस्थाओं की कल्पना की गई है। इन तीनों अवस्थाओं के लक्षणों के द्वारा साधक भी यह जान सकता है कि उसने कौन सी अवस्था में प्रवेश किया है या वह किस अवस्था में है? ये तीनों
४६७ (क) अध्यात्म परीक्षा गा. १२५ ।
(ख) योगावतार, द्वात्रिंशिका १७-१८ ।
(ग) मोक्खपाहुड ४ । ४६८ देखिये आचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन ३-५ ।
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