Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
ज्ञाता-द्रष्टापन शुद्ध पारिणामिक भाव है, क्योंकि ये सिद्धों में भी होते हैं! आत्मा का पारिणामिक भाव ही आत्मा को जड़-द्रव्यों से अलग करता है। यह पारिणामिक भाव कर्मजन्य नहीं है।५५ पंचाध्यायी में कर्मों के उदय, उपशमादि इन चारों ही अपेक्षाओं से रहित मात्र द्रव्य स्वरूपवाले पारिणामिक भाव का उल्लेख मिलता है।५६ पूज्यपाद२५७ और अकलंकदेव५८ ने भी पारिणामिक भावों की समीक्षा की है। उनके अनुसार ये पारिणामिक भाव अनादि, अनन्त निरुपाधिक और स्वाभाविक
होते हैं।२५६ जीव के ज्ञान-दर्शन गुण पारिणामिक भाव हैं। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - इन तीनों भावों को दो भागों में विभक्त किया गया है -
(क) शुद्ध पारिणामिक भाव; और (ख) अशुद्ध पारिणामिक भाव । (१) शुद्ध पारिणामिक भाव : शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से
आत्मा का शुद्ध पारिणामिक भाव एक जीवत्व ही है, क्योंकि यह आत्मद्रव्य का चैतन्य रूप परिणमन है।३६० पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में जीवत्व का अर्थ चैतन्य बताया है कि यह
जीवत्व भाव शुद्ध आत्मा का परिणाम है।३६१ (२) अशुद्ध पारिणामिक भाव : अशुद्ध पारिणामिक भाव पर्यायाश्रित
होते हैं और ये विनाशशील भी होते हैं। पर्यायार्थिकनय के अनुसार ये तीन प्रकार के हैं : (१) जीवत्व; (२) भव्यत्व; और (३) अभव्यत्व। कर्मजनित दस प्रकार की प्राण रूप पर्याय अशुद्ध पारिणामिक भाव है। तीनों अशुद्ध पारिणामिक भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से होते हैं, किन्तु शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से नहीं होते। मुक्त जीवों में अशुद्ध पारिणामिक भावों का अभाव होता है।३६२
३५५ तत्त्वार्थवार्तिक २/१/६ । ३५६ पंचाध्यायी ६७१। ३५७ सर्वार्थसिद्धि २/७ । ३५८ तत्त्वार्थवार्तिक २/७/६ । ३५६ पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका ५८ । ३६० तत्त्वार्थवार्तिक २/७/६ । ३६१ सर्वार्थसिद्धि २/७ । ३६२ द्रव्यसंग्रह टीका १३ ।
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