Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
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जाता है। इस प्रकार गुप्ति से संवर होता है।४२६ गुप्ति के मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति - ऐसे तीन भेद किये गए हैं। संवर की साधना गप्ति पर निर्भर है। महाव्रतों का निर्दोष पालन भी गुप्ति पर निर्भर है। कर्मानव में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को योग कहा गया है। उन
योगों को सम्यक्रूरूप से रोकने को गुप्ति कहा जाता है।३० (२) समिति : समितियों का पालन करने से साधु को हिंसादि
का पाप नहीं लगता है। समिति का पालन करना संवर है। गुप्ति का पालन प्रति समय नहीं किया जा सकता है, क्योंकि साधक को जीवन निर्वाह के लिए बोलना, खाना-पीना, रखना-उठाना, बैठना-उठना, मल-मूत्र का विसर्जन आदि तो करना ही पड़ता है। इन प्रवृत्तियों में सजगता या सावधानी रखना समिति है। इस प्रकार संयम की शद्धि के लिए और जीवों की रक्षा के लिए समिति का पालन करना आवश्यक है। पूज्यपाद देवनन्दी के अनुसार सम्यक् प्रवृत्ति ही समिति है।३' समिति के पाँच भेद हैं -
(१) ईर्यासमिति; (२) भाषासमिति; (३) एषणासमिति; (४) आदान निक्षेप समिति; और (५) उच्चार प्रसवण उत्सर्ग समिति।७३२
४२६ (क) 'तस्मात् सम्यग्विशेषणविशिष्टात्, संक्लेशाप्रार्दुभावपरात्कायादियोग निरोधे सति तत्रिमित्तं कर्म नामवतीति संवरप्रसिद्धिरवगन्तव्या'
-सर्वार्थसिद्धि ६/४ । (ख) तुलना के लिए तत्त्वार्थचार्तिका ६/४/४ ।
(ग) तत्त्वार्थसार ६/५ । ४३० तत्त्वार्थसूत्र ६/४ और भी दृष्टव्य मूलाचार गा. ३३१ । ४३१ (क) 'प्राणिपीडापरिहारार्थं, सम्यगयनं समितिः'
-सर्वार्थसिद्धि ६/२ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक ६/२/२ ।। (ग) भगवतीआराधना विजयोदया टीका गा. १६/५ । (घ) सर्वार्थसिद्धि ६/२ । (क) मूलाचार गा. १० एवं ३०१ । (ख) चारित्रपाहुड गा. ३७ । (ग) तत्त्वार्थसूत्र ६/५ और उसकी टीकाएँ ।
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