________________
विषय प्रवेश
४४०
के द्वारा ही होती है । अध्यात्म मार्ग के पथिक (साधक) को कषायाग्नि का शमन करने के लिए अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करना आवश्यक है । ४३६ अनुप्रेक्षा, भावना एवं चिन्तन समानार्थक शब्द हैं। उमास्वाति ने जगत् के स्वरूप एवं शरीरादि के स्वभाव का चिन्तन करने को ही अनुप्रेक्षा कहा है । एक अन्य अपेक्षा से अन्तरंग भावों का निरीक्षण करना ही अनुप्रेक्षा है । वीरसेन ने षट्खण्डागम की धवला टीका में कहा है कि कर्मों की निर्जरा के लिए पूर्णरूप से हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान का परिशीलन करना अनुप्रेक्षा है । ४४० एक अन्य अपेक्षा से आत्मशुद्धि करने हेतु पदार्थों के सांयोगिक एवं अनित्य स्वरूप का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा के निम्न बारह भेद हैं :
अनित्य;
(४) एकत्व;
(७) आस्रव; (१०) लोक;
ये
४४१
(२) अशरण;
(५) अन्यत्व;
(८) संवर;
(११) बोधिदुर्लभ और
बारह
अनुप्रेक्षाएँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थसार आदि में विवेचित हैं।
(५) परीषह :- मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ साधक द्वारा नवीन कर्मों का संवर करते हुए संचित कर्मों की निर्जरा के लिए भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की वेदना को समभावपूर्वक सहना परीषह है । कर्मानव में कहा भी है कि मोक्ष मार्ग से भ्रष्ट न होने तथा कर्मनिर्जरा के लिए जो कुछ सहने योग्य है वह परीषह है । पूज्यपाद देवनन्दी के अनुसार क्षुधादि की वेदना को सहन करना परीषह है अथवा प्रतिकूल परिस्थितियों में अविचलित
.४४१
(३) संसार;
(६) अशुचित्व; (६) निर्जरा;
(१२) धर्म;
४३६ ‘विद्ययाति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तम् ।
उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ।। ' - ज्ञानार्णव, सर्ग २, उपसंहार का २ । ‘कम्मणिज्जरणट्ठमट्टिमज्जायुगमस्स सुदणाणस्सपरिमलणमणु पेक्खणणाम् ।'
-धवला पु. ६, खं. ४, भा. १, सूत्र ५५ ।
(क) बारस अणुपेक्खा; ( ख ) तत्त्वार्थसूत्र ६ / ७ । (ग) प्रशमरतिप्रकरण का. १४२-५० ।
Jain Education International
१०६
सर्वार्थसिद्धि,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org