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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
भेदों को पाँच इन्द्रियों के संयम के रूप में स्वीकार किया गया है।४१५ उत्तराध्ययनसूत्र में संवर के स्थान पर संयम को भी आनव-निरोध का हेतु कहा गया है। १६ प्रकारान्तर से शुभ अध्यवसाय भी संवर के अर्थ में स्वीकार किये गये हैं।
धम्मपद में भी संवर शब्द का अर्थ संयम ही किया गया है।४१७ कहीं-कहीं शुभ-अध्यवसायों को भी संवर के अर्थ में स्वीकृत किया गया है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि “अशुभ से निवृत्ति के लिए शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है। वृत्तिशून्यता के अभ्यासी के लिए भी प्रथम शुभ-वृत्तियों को अंगीकार करना होता है। क्योंकि चित्त जब शुभवृत्ति से परिपूर्ण होता है तब अशुभ के लिए कोई स्थान नहीं रहता है। अशुभ को हटाने के लिए प्रथम शुभ आवश्यक है।"४१८. अतः संवर का अर्थ शुभवृत्तियों का अभ्यास भी है। द्रव्यसंग्रह में संवर के द्रव्यसंवर और भावसंवर - ऐसे दो भेद स्वीकार किये गये हैं।४१६ द्रव्यानव अर्थात कर्मवर्गणा के पुद्गलों के आत्मा की ओर आगमन को रोकनेवाले क्रियारूप व्यापार का निरोध द्रव्यसंवर है और कर्मानवों को रोकने में सक्षम आत्मा की चैतसिक स्थिति को भावसंवर कहा गया है।
समवायांग में संवर के निम्न पाँच अंग अर्थात् द्वार बताये गये हैं -
(१) सम्यक्त्व ; (२) विरति (मर्यादित संयमित जीवन); (३) अप्रमत्तता (आत्मचेतनता); । (४) अकषायवृत्ति (क्रोधादि आवेगों का अभाव); और (५) अयोग (अक्रिया)। २०
४१५ ठाणांगसूत्र ५/२/४२७ । ४१६ उत्तराध्ययनसूत्र २६/२६ । ४१७ धम्मपद ३६०/३६३ । ११८ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन'
भाग १ पृ. ३८७-८८ ।
द्रव्यसंग्रह ३४ । ४२० समवायांग ५/५ ।
-डॉ.सागरमल जैन ।
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