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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
जब तक इनके व्यापार चलते रहते हैं, तब तक बन्धन बना रहता है। इनके व्यापार दो प्रकार के होते हैं - शुभ और अशुभ। इसी कारण से योग के शुभयोग और अशुभयोग -
ऐसे दो भेद होते हैं। इस प्रकार इन पाँच कारणों से जीव बन्धन को प्राप्त होता है।
५. बन्धन का कारण आम्नव
जैन दार्शनिकों ने यूँ तो कर्मबन्ध के अनेक कारण माने हैं; किन्तु उसका मूल कारण तो आस्रव ही है। आस्रव के अभाव में बन्ध सम्भव नहीं है। आस्रव शब्द का अर्थ है आना। शुभ एवं अशुभ कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मा के सम्पर्क में आना ही आस्रव है। अतः जैन तत्त्वज्ञान में आसव का रूढ़ अर्थ कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मा की ओर आगमन है। ये कर्मवर्गणा के पुदगल ही आत्मा के बन्धन के कारण होते हैं। आसव के दो भेद हैं :
(१) भावानव; और (२) द्रव्यानव। आत्मा की विकारी मनोदशा भावानव है और कर्मवर्गणा के पुद्गलों के आत्मा में आने की प्रक्रिया द्रव्यानव है। भावानव कारण है और द्रव्यानव कार्य है। द्रव्यानव भावानव के कारण ही होता है। किन्तु आत्मा का यह भावात्मक परिवर्तन भी अकारण नहीं, बल्कि पूर्वबद्ध कर्मों के कारण ही होता है। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्मों के कारण भावानव, भावानव के कारण द्रव्यानव और द्रव्यास्रव से कर्मबन्धन होता है। शुभ प्रवृत्तियाँ पुण्य कर्म का आनव है और अशुभ प्रवृत्तियाँ पाप का आस्रव है।१२ सामान्य रूप से मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ ही आस्रव की हेतु हैं। जैनागमों में इनका वर्गीकरण अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से उपलब्ध होता है। कर्मानव में आस्रव के दो भेद कहे गये हैं - "सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः”४१३ :
(१) ईर्यापथिक; और (२) साम्परायिक।
४१२ तत्त्वार्थसूत्र ६/३-४ । ४१३ वही ६/५ ।
-पं. सुखलालजी का विवेचन तत्त्वार्थभाष्यमानपाठ ।
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