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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
वीरसेन ने धवला में कहा है कि अशुद्ध पारिणामिक भाव प्राणों को धारण करने के कारण अयोगी के अन्तिम समय से आगे
नहीं होते। सिद्धों में इनका अभाव होता है।३६३ उपर्युक्त इन पंच भावों में से औदयिक भाव आत्मा के बन्धन का कारण है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव आत्मा के मोक्ष के हेतु हैं, किन्तु पारिणामिक भाव३६४ बन्ध और मुक्ति दोनों का हेतु नहीं है।
१.८ बन्धन और उसके कारण
जैनदर्शन में नवतत्त्वों में बन्ध और मोक्ष को भी तत्त्व रूप में स्वीकार किया गया है। संसार में कर्मबन्ध की यह प्रक्रिया निरन्तर चल रही है। पूर्व-कर्म संस्कार समय-समय पर उदित होकर हमारी चेतना को विकारी बनाते हैं। उसके परिणामस्वरूप मन, वचन और शरीर - इन तीनों का क्रियारूप व्यापार होता है। फलतः नवीन कर्मानव होकर कर्मबन्ध होता है। सूत्रकृतांग के प्रथम अध्याय के प्रथम उद्देशक की टीका में बताया गया है :
“बध्यते परतन्त्री क्रियते आत्माऽनेनेति बन्धम् ।” जिसके द्वारा आत्मा को परतन्त्र बना दिया जाता है; वह बन्धन है। सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा से लेकर छठी गाथा तक बन्धन और बन्धन से मुक्ति का विवेचन किया गया है। प्रथम गाथा में बन्धन को जानकर उसे तोड़ने की बात कही गई है। दूसरी से चौथी गाथा तक बन्धन के कारणों की चर्चा की गई है तथा पाँचवी और छठी गाथा में बन्धन से छूटने के उपाय बताये गये हैं। कर्म सिद्धान्त जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। डॉ. लालचंद जैन “जैनदर्शन में आत्मविचार" नामक ग्रन्थ में लिखते हैं कि “संसारी आत्मा कर्मों से जकड़ी हुई होने के कारण परतन्त्र है। इसी परतन्त्रता का नाम बन्ध है।"३६५ भारतीयदर्शन की प्रसिद्ध उक्ति है 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' अर्थात् प्राणी कर्म के
३६३ धवला १४/५/६/१६ । ३६४ वही ७/२/१/७ । ३६५ 'बध्यतेऽनेन बन्धमात्रं वा बन्धः ।'
-तत्त्वार्थवार्तिक १/४/१० ।
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