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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
ही घटित होते हैं । इसी अपेक्षा से आत्मा का एक भेद वीर्यात्मा भी कहा गया है ।
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योगात्मा जैनदर्शन में सशरीरी जीव की मन, वचन और काया की चंचल प्रवृत्तियों को योग कहा है । उमास्वाति के अनुसार जिनके कारण कर्मास्रव होता है वे योग हैं। यह योग का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है। पूज्यपाद ने मन, वचन और काया के कारण होनेवाले आत्मप्रदेशों के स्पन्दन को योग कहा है 1 उमास्वाति ने कर्मास्रव में मन, वचन और काया की अपेक्षा से योग के तीन प्रकार बताये हैं। आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवकाण्ड में योग के पन्द्रह भेद किये हैं । योग-व्यापार से युक्त आत्मा योगात्मा है । योग जब कषायों से अनुरंजित होता है तब वह बन्धन का कारण बनता है । किन्तु कषायों के अभाव में जो योग प्रवृत्ति है, उसे बन्धन का कारण नहीं माना गया है । त्रिविध आत्मा की अपेक्षा से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और अरहन्त परमात्मा तीनों ही योग से युक्त हैं; किन्तु बहिरात्मा की योग प्रवृत्ति तीव्रतम कषायों से अनुरंजित होती है । अन्तरात्मा कषायों से अनुरंजित योग प्रवृत्ति पर संयम या नियंत्रण करती है। अर्हन्त परमात्मा की योग प्रवृत्ति राग-द्वेष और कषायों से रहित होती है। इस प्रकार अन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा तीनों योगात्मा हैं। अयोगीकेवली और सिद्धावस्था में योग का अभाव होता है । अतः उनकी आत्मा योगात्मा नहीं है ।
८. कषायात्मा
कषायात्मा है।२७६
भगवतीसूत्र में आत्मा के आठ भेदों में एक भेद कष्+आय+आत्मा = कषायात्मा । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों से युक्त जीव की अवस्था विशेष को ही कषायात्मा कहा जा सकता है । आचारांगसूत्र की वृत्ति में शीलांकाचार्य ने 'कषाय' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है : कषू अर्थात् संसार, आय अर्थात् लाभ संसार का लाभ
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(क) 'काय वाङ् मनः कर्म योगः' ।
(ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) योगमार्गणा ४ गाथा २१६ । २७४ 'योग वाङ्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः २७५ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) योगमार्गणा ४ गाथा २१८-२१ । भगवतीसूत्र १२/१०/४६७ ।
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-तत्त्वार्थसूत्र ६/१ ।
- सर्वार्थसद्धि २/२६, पृ. १८३ ।
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