Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
(४) संज्वलन चौकड़ी वीतराग अवस्था की उपलब्धि में बाधक है।
प्रशमरतिग्रन्थ में राग एवं द्वेष को ही कषाय माना गया है। राग-द्वेष के आधार पर ही कषायों का जन्म होता है। जो आत्मा राग-द्वेष की प्रवृत्तियों से युक्त होती है वह कषायात्मा है। प्रशमरति में आगे उमास्वाति लिखते हैं कि क्रोध कषाय से प्रीति का नाश होता है; मान से विनय की हानि होती है। माया से विश्वास को ठेस पहुँचती है और लोभ से सभी गुणों का नाश हो जाता है। इस प्रकार कषाय को आत्म-गुणों का विघातक माना गया है। जब तक आत्मा में कषाय की सत्ता बनी रहती है; तब तक उसके शुद्ध स्वरूप का प्रकटन सम्भव नहीं होता है। कषाय से आवृत्त आत्माएँ कषायात्माएँ हैं। जब तक जीव वीतरागदशा को प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक कषायों की सत्ता बनी रहती है। जब तक जीव इन कषायों से युक्त रहता है वह कषायात्मा कहलाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में क्रोध कषाय का स्वरूप वर्णित किया है। क्रोध शरीर और मन को सन्ताप देता है। वे लिखते हैं कि क्रोध-वैर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडंडी है, क्रोध मोक्ष सुख में अर्गला के समान है।२८३ क्रोध-कषायरूपी अग्नि स्वयं आत्मा को तो जलाती ही है साथ ही दूसरों को भी जलाती है। क्रोधी व्यक्ति का विवेकरूपी दीपक भी बुझ जाता है। वस्तुतः कषायात्मा बहिरात्मा की वाचक है।
१.६ आत्मा (जीवों) के प्रकार
जैनदर्शन में नवतत्त्व की व्यवस्था अध्यात्मपरक है, जो आत्मा (जीव) के बन्धन और मुक्ति की कहानी कहती है। इन नवतत्त्वों में जीव और अजीव सत्ता रूप हैं, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीन आध्यात्मिक विकास अर्थात् स्वरूपोपलब्धि के साधक तत्त्व हैं तथा आनव, पुण्य, पाप और बन्ध ये चार तत्त्व स्वरूपोपलब्धि में बाधक हैं। बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मपद की
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२८२ प्रशमरतिप्रकरण ३२ । २८३ 'तत्रोपतापकः क्रोधः, क्रोधो वैरस्य कारणम् ।
दुर्गतेर्वर्तनी क्रोधः, क्रोधः शम सुखार्गला ।।६।।'
-योगशास्त्र ४ ।
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