Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
की अपेक्षा से संसारी आत्मा के मुख्यरूप से चार भेद होते हैं -
(१) नरक; (२) तिर्यंच; (३) मनुष्य; और (४) देव। (१) नरकगति : तत्त्वार्थभाष्य में पंडित सुखलालजी३२३ लिखते हैं
कि नारकों का निवासस्थान अधोलोक में है। उनके निवासस्थान को नरकभूमि कहते हैं। नारकी के जीव पापकर्मों के कारण भयंकर दुःखों को सहन करते हैं। गति, जाति, शरीर और अंगोपांग नामकर्म की अशुभ द्रव्य लेश्याओं के उदय से नरकगति में जीव जीवनपर्यन्त दुःखी रहता है। नरक में क्षेत्र स्वभाव से सर्दी-गर्मी के भयंकर दुःखों को सहना पड़ता है। भूख-प्यास का दुःख तो और भी भयंकर होता है। भूख इतनी सताती है कि अग्नि की भाँति सर्वभक्षण से भी शान्त नहीं होती और अधिक बढ़ जाती है। प्यास भी इतनी लगती है कि जितना जल पिया जाय उतना कम होता है। वे कभी तृप्त नहीं होते। नारकी के जीव जन्मजात एक दूसरे के शत्रु होते हैं। नारकी के जीव कर्मवश असहाय होकर सम्पूर्ण जीवन तीव्र वेदनाओं के अनुभव में ही बिताते हैं। वेदना कितनी ही अधिक हो पर नारकों के लिए न तो कोई शरण है और अनपवर्तनीय आयु के कारण जीवन भी जल्दी समाप्त नहीं होता। नरक के जीव नपुंसक एवं उपपाद जन्मयुक्त होते हैं। नरक का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि अधोलोक में नीचे क्रमशः सात पृथ्वियाँ निम्न हैं -
(१) रत्नप्रभा; (२) शर्कराप्रभा; (३) बालुकाप्रभा; (४) पंकप्रभा; (५) धूमप्रभा; (६) तमःप्रभा; और
(७) तमःतमप्रभा। इन सात नरक क्षेत्रों में उत्पन्न होने से नरक जीव भी सात प्रकार के होते हैं। तिर्यंच और मनुष्य ही-नरकगति में उत्पन्न होते हैं। देव सीधे नारकी में उत्पन्न नहीं होते हैं। नारक जीव भी मृत्यु के पश्चात् पुनः नरक या देवगति में पैदा नहीं होते हैं। मध्य में तिर्यंच या मनुष्य का भव करते हैं। नारक जीवों का वैक्रिय शरीर होता है।३२५
३२३ 'न देवाः औपपातिक चरमदेहोत्तमपुरुषाऽसङ्ख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ।'
__-तत्त्वार्थसूत्र भाष्यमानपाठ अ. २/५०-५२ । ३२४ तत्त्वार्थसूत्र २/३५ एवं ५०१ (पं. सुखलालजी, तत्त्वार्थभाष्य पृ. ८.६ । ३२५ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१५६-१५६ और १६६ ।
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