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विषय प्रवेश
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करानेवाली चित्तवृत्ति कषाय है । जिनभद्रगणिक्षमा श्रमण के अनुसार जिससे दुःखों की प्राप्ति होती है उसे कषाय कहते हैं और कषाय से युक्त आत्मा को कषायात्मा कहा जाता है । आचार्य नेमिचन्द्र ने कषाय शब्द की व्युत्पत्ति हिंसार्थक 'कष्' धातु से बताई है। हिंसार्थक कष् धातु की अपेक्षा से जो आत्मा के स्वभाव या शुद्ध स्वरूप का हनन करे वह कषाय है। राजवार्तिककार ने भी इसी बात का समर्थन किया है कि जो आत्म-स्वभाव का हनन करे या उसे कुगति में ले जाए वह कषाय है । कषाय आत्मा की वैभाविक अवस्था है और कषाय के कारण विभावदशा में रही हुई आत्मा कषायात्मा है । सामान्यतः संसारी आत्मा कषायसहित होती है । एक समय में एक कषाय मुख्य रहती है। अन्य तीन कषायें उस समय गौण रूप में रहती हैं। क्योंकि वे अन्योन्याश्रित हैं । प्रत्येक कषाय अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक उदय में रह सकती है। वेग की तीव्रता या मन्दता के आधार पर प्रत्येक कषाय के चार भेद किए गए हैं : अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन । इनमेंः (१) अनन्तानुबन्धी की चौकड़ी यथार्थ दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक होती है;
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(२) अप्रत्याख्यानी चौकड़ी आत्म-नियंत्रण की शक्ति के प्रकटन में बाधक होती है;
(३) प्रत्याख्यानी की चौकड़ी श्रमण जीवन की साधना में घातक होती है; और
(क) जे कोहदंसी से माणदंसी,
.. आयाणं निसिद्धा सगडब्भि ।
- आचारांगसूत्र १/३/४ सू. १३० । (ख) 'जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. २३०-३१ । - डॉ. सागरमल जैन ।
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(ग) 'अप्पेगे पलियंतेसि बाला कसायवयणेहिं ।' -सूत्रकृतांग अ. ३/३/१ गा. १५ । विशेषावश्यकभाष्य भाग २ गाथा १२२८ - २६ ।
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२७६ गोम्मटसार - जीवकाण्ड ६/८२-८३ ।
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२८१ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ५०१ ।
- डॉ. सागरमल जैन ।
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