________________
८२
भेद हैं३०६ :
(५) वायुकायिकजीव वायुकाय युक्त हो; वे रूप से चार भेद हैं
१. अंगार की अग्नि; २. मुर्मुर; ३. ज्वाला; ४. उल्कापात की अग्नि और ५. चिन्गारी, विद्युत आदि । जिनका शरीर वायु नामकर्म के उदय से वायुकायिकजीव कहलाते हैं । इनके मुख्य सूक्ष्म पर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादर पर्याप्तक और बादर अपर्याप्तक । बादर पर्याप्तक वायुकाय के
जीव पाँच प्रकार के हैं; जैसे
-
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
(१) उत्कलिकवायु; (३) घनवायु; (५) संवर्तकवायु ।
Jain Education International
-
उत्तराध्ययनसूत्र में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इन सब के अनेक भेद बताये गये हैं ।
-
द्वीन्द्रियजीव :
जिन जीवों के स्पर्शन और रसन दो इन्द्रियाँ होती हैं; वे द्वीन्द्रिय कहे जाते हैं । इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऐसे दो भेद होते हैं । वे जीव निम्न हैं शंख, सीप, कोड़ी, गंडुल, अलसिया, चन्दनिया आदि । ३१०
(२) मण्डलिकवायु; (४) गुंजवायु; और
त्रीन्द्रियजीव :
जिन जीवों के स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं, वे त्रीन्द्रियजीव कहलाते हैं । त्रीन्द्रियजीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऐसे दो भेद होते हैं । वे निम्न हैं चींटी, खटमल, मकड़ी, कानखजूरा, आदि । ३"
.३११
३०६ 'इंगाल, जाल, मुम्मुर उक्कासणि कणग विज्जुमाइआ । अग्नि जियाण भेया, नायव्वा उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / १२७-३० । ३११ वही ३६ / १३६ एवं १३७ - १३६ ।
३१०
निउणबुद्धिए ।। ६ ।।'
For Private & Personal Use Only
-जीवुविचार गा. ६ ।
www.jainelibrary.org